जैनू !
तुम्हें देखकर
’निराला का भिक्षुक’ कभी याद नहीं आता।
पेट और पीठ दोनों साफ-साफ दीखते हैं तुम्हारे
और तुम्हारी रीढ़ एकदम ही नहीं झुकती
जबकि तुम तो जानते हो
भिखारी के पास रीढ़ नहीं हुआ करती।
जैनू !
समय की आँधी की चिरन्तन धूल
अपने कपड़ों पर लेकर भी
गंदे क्यों नहीं होते हो तुम, और
पास चले आते हो अभिजात्य की इस दुनिया में
रोटी हाथ से हाथ में ले लेने के लिये,
क्या नहीं जानते ?
आदत है इस दुनिया को
भिखारी को रोटी दूर फेंक कर खिलाने की ।
महसूस करो जैनू !
कि तुम्हारा आखिरी कपड़ा
जो तुम्हारे बदन पर बच गया है
वह मैला होकर फट गया है,
लाल मंजन का वो गुनगुना तीखापन
जो तुम्हारे उजले दाँतों का सबब था
पीला होकर तुम्हारे दाँतों पर जम गया है,
और तुम्हारे बदन का पीलापन
तुम्हारी पुतलियों ने सोख लिया है
और बदले में अपने कालेपन को
ले जाकर ठहरा दिया है तुम्हारी त्वचा में ।
जैनू ! तुम फिर आना
और गाते जाना –
“ऊँची-ऊँची दुनिया की दीवारें
सइयाँ तोड़के मैं तोड़के चली आई रे…
तेरे लिये सारा जग छोड़ के….”
और मैं चला आऊँगा तुम्हारे पास
तुम्हारे भीतर छिपे प्रकृत-सत्य को ढूँढ़ने
और तुम्हारी पुतलियों के सूरज में
खुद को ख़ाक करने ।
सुन्दर रचना है, संवेदना उसके प्रति जिसको इसका अहसास भी नहीं।
बहुत गज़ब की रचना..अभिभूत कर दिया. बधाई!!
कविता बहुत सशक्त है। बहुत सुन्दर।
जैंनूँ को यदि चिन्हित कर पाता,
तो आनन्द द्विगुणित हो उठता ।
पुनः प्रयास करूँगा, जैंनूँ को समझ पाने की..
रचना निःसँदेह अप्रतिम है !
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
जैंनूँ फत्तू का सहोदर लगता है. 🙂
अपने-आप में बेजोड़ कृति वो भी थी- ये भी है