दूसरों की गली का लगाते हो फेरा
कभी तुमने अपनी गली में न झाँका
तितलियों के पीछे बने बहरवाँसू
कभी होश आया नहीं अपनी माँ का ।
सुबह शाम बैठे नदी के किनारे
चमकते बहुत सीप कंकड़ बटोरे,
सहेजा सम्हाला उन्हें झोलियों में
गया भूल अपना सुनहला कटोरा ।
अमावस में ही जिन्दगी काट डाली
न पाया कभीं पूर्णमासी की राका ।
तुम्हारे बिना तेरा सूना पड़ा घर
तूँ बाहर ही बाहर मचाये तमाशा,
यहाँ से वहाँ चौकड़ी भर रहा है
मरुस्थल में जैसे हिरण कोई प्यासा।
गुणा-भाग लाखों का करता रहा बस
बही में न उसके संदेशे को टाँका ।
अरे जिसको अपना समझकर मगन है
न तेरी दिवाली न तेरी है होली,
किसी और ने ही जलाया है दीपक
किसी और ने की है मीठी ठिठोली ।
न क्यों अपने भीतर में ही पूछ लेते
सफर यह तुम्हारा कहाँ से कहाँ का ।
भले तुम असंभव को कर डालो संभव
औ’ बहती नदी शैल की ओर मोड़ो,
भले बाहु में बाँध लो बादलों को
पकड मुट्ठियों में गगन को निचोडो़।
विवश किन्तु किंचित बिलखते रहोगे
सदा साथ देता है बल वंदना का ।
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
भले तुम असंभव को कर डालो संभव
औ’ बहती नदी शैल की ओर मोड़ो,
भले बाहु में बाँध लो बादलों को
पकड मुट्ठियों में गगन को निचोडो़।
विवश किन्तु किंचित बिलखते रहोगे
सदा साथ देता है बल वंदना का ।
कविता तो अच्छी लगी मगर भाव कुछ बिखरे ,विश्रिंख्लित से ! मन उथले पर ही है और डूबो मन !
बहुत बढिया. मन:स्थिति का हल्का सा प्रभाव रचना पर आना भी उसके गुणों मे बढोत्तरी ही करता है, ऐसा मैं मानता हूं.
रामराम.
बहुत अच्छा लगा आज आप को पढना, धन्यवाद
सुंदर रचना! बधाई!
अच्छी कविता हिमांशु जी। इन पंक्तियों ने खास कर रिझाया
भले तुम असंभव को कर डालो संभव
औ’ बहती नदी शैल की ओर मोड़ो,
भले बाहु में बाँध लो बादलों को
पकड मुट्ठियों में गगन को निचोडो़।
अरे वाह, मन के भीतर झांकने को विवश कर गयी आपकी रचना।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
तितलियों के पीछे बने बहरवाँसू
कभी होश आया नहीं अपनी माँ का
badhai!