हे बहु-परिचित सूर्य !
नहीं पा रहा हूँ तुम्हें नये सिरे से पहचान,
पहचान नहीं पा रहा ….
उत्तरी हवा चल रही है ।
वैज्ञानिक कहता है-
कृत्रिम-’हार्ट’ बना दूँगा,
आँखें जाँय तो क्या, मृत कुत्ते की आँखें दूँगा ।
और मस्तिष्क भी शायद,
शायद वह भी बदला जा सकेगा !>
परन्तु मन ?
उसका क्या होगा ?
और हृदय ?
उसका क्या होगा ?
(हार्ट तो हृदय नहीं है न !)
हे वैज्ञानिक, विज्ञानवेत्ता,
क्या तुम प्लास्टिकी-मन और सिंथेटिक हृदय दे पाओगे?
हृदय निस्पन्द हो भी तो क्या –
मिल सकेगा सेलोफेन लिपटा (नया) हृदय?
मन जाये तो मिलेगा क्या, रेशमी गाँठ में मन नया –
कागजी नोट और नये पैसों के बदले ?
और क्या तुम्हें भी प्लास्टिक-सिंथेटिक औ’
मन को समझाने वाले चौदह कैरट (सोने) में पा सकूँगा ?
हे सूर्य,
हे बहुपरिचित सूर्य !
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मूल बंगला कविता : कामाक्षीप्रसाद चट्टोपाध्याय;
अनुवाद : रमेन्द्र नाथ बोस
साभार : भारती-13 जून, 1965
अपने आप में गहरे अर्थ समेटे अच्छी रचना आपके माध्यम से पढ़ पाया।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छी कविता हिमांशु मगर सूर्य को क्यूं लपेटा -विवेचना की मांग है !
मन भटकता रहेगा, प्लास्टिक के अंगों को लिए।
adbhut !
bahut umda !
बहुत लाजवाब रचना.
रामराम.
बहुत बढिया!!
मूलतत्व तो निश्चय ही विलक्षण है – उसे कट-पेस्ट से नहीं पाया जा सकता!
बढ़िया पोस्ट!
रचना तो गहन भावों से भरी है .