अपनी पिछली प्रविष्टि (हे सूर्य : कविता – कामाक्षीप्रसाद चट्टोपाध्याय) पर अरविन्द जी की टिप्पणी पढ़कर वैसे तो ठहर गया था, पर बाद में मन ने कहा कि कुछ बातें इस प्रविष्टि के संदर्भ में करना जरूरी है, क्योंकि लगभग यही प्रश्न ज्यों का त्यों मेरे मस्तिष्क में भी इस कविता को पढ़कर उठा था- मगर सूर्य को क्यूं लपेटा? और लगभग इसी तरह की जिज्ञासा की प्रेरणा ने यह प्रविष्टि पोस्ट करा दी थी। आपके सम्मुख है इस उत्प्रेरित मस्तिष्क का चिन्तन।
प्रस्तुत कविता चिरपरिचित सूर्य की ओर अभीप्सा की आकुलता है। सूर्य निदर्शन है आत्मा का और अनन्त शक्ति सम्पन्न प्रेरक प्राण का। श्रुति का निदर्शन भी है – “सूर्यो आत्मा जगतस्तस्तुथष्च।“ उस सूर्य की तलाश कोई नवीन नहीं है, वह चिरपरिचित है, बहुपरिचित है। कवि की छटपटाहट है कि वह अपने परम चिरपरिचित की पहचान नहीं कर पा रहा है क्योंकि उत्तरी हवा चल रही है। इस उत्तरी हवा की विवेचना की मांग भी जरूरी थी। उत्तरी हवा अर्थात पूर्व का नहीं, बाद का उच्छलन; पूर्ववर्ती नहीं उत्तरवर्ती संस्कृति की भौतिकवादी धारा।
वैज्ञानिक का पूर्ण प्रयास है कि ’हार्ट’ को प्लास्टिक का बना देगा और हृदय का काम निष्पन्न हो जायेगा। दृष्टि श्वान की लगा देगा और गयी हुई आँख का कोटा पूरा हो जायेगा। वैज्ञानिक का प्रयास रिक्तता की भरपाई करने का है, पर कवि का जो दर्द है उसकी भरपाई कैसे हो? हृदय की धड़कन के भीतर उठने वाले उच्छ्वास प्लास्टिकी ह्रुदय दे सकता है क्या? नैन का आकर्षण, उसका सलोनापन, उसकी अनकही बातों के कह देने का गुर कुत्ते की आँख दे सकती है क्या ? और प्लास्टिक का मन जो ज्योतियों में ज्योति का रूप है- “ज्योतिषांज्योतिरेकम्” उसे चौदह कैरेट सोने में पाया जा सकेगा क्या?
वर्तमान भौतिक चाकचिक्य और विशिष्ट ज्ञान की आंधी में खोये हुए प्राण की छटपटाहट, आत्मानुसंधान, शिवसंकल्पात्मक मन – यही लेखक की बहुपरिचित सूर्य की सम्पदा है, जो गुम हो रही है, हो गयी है। रहा वह परिचित ही पर अपरिचय की धूल में ऐसा ढंक गया है कि पहचान में नहीं आता । अपने इसी अन्तर्ज्योति की खोज के लिये बेचैनी इस कविता की मूल भावना है। अब कवि बस इतना ही कह कर लम्बी साँस ले रहा है –
“हे बहु-परिचित सूर्य !
नहीं पा रहा हूँ तुम्हें नये सिरे से पहचान,
पहचान नहीं पा रहा ….”
और कविता का प्रारम्भ जिस व्याकुलता से हुआ है, उसका अन्त भी उसी व्याकुलता में दिखता है जब वह फिर पुकारने लगता है, कहाँ हो तुम? –
“हे सूर्य,
हे बहुपरिचित सूर्य!”
सूर्य आत्मा का, प्राण का प्रतीक है। क्या प्राण का चला जाना वैज्ञानिक लौटा सकता है। उसका Substitute क्या है? आत्मा मर गयी तो उसका जीवन कैसे देगा? यही आत्म विभूति, यही प्राणवत्ता ही मानव का स्वरूप है, अपना परम धन है। इसी बहुपरिचित सूर्य को वैज्ञानिक उपलब्धि के बीच में खोज रहा है, और कारण सीधा लग रहा है कि उत्तरी हवा ने सारी गड़बड़ी कर दी है। उत्तर, उत्तर तो है, लेकिन वह मरे हुए का सिर सम्हालने वाली दिशा है। पूर्व दिशा ही प्राण की दिशा है, इसलिये पूर्वी बयार नहीं मिली तो उत्तरी में पहचान खोना, परिचय खोना तो सहज संभव है।
आप ने स्पष्ट किया। अच्छा लगा। लेकिन कविता तो कविता है। जरूरी नहीं कि सूर्य सूर्य ही हो। किसी के लिए कुछ भी सूरज हो सकता है। तब भी बात वही रहेगी जौ आप ने समझाई है।
achhi charcha!
achhi kavita !
भाई ये समझना मेरे बस की बात नहीं.. पर प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा है!!
आपकी विवेचना पढकर कविता का मन्तव्य साफ हो गया है। आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
natmastak
बहुत सुंदर विवेचना की आपने.वैज्ञानिक निश्चय ही प्राण नही लौटा पायेगा, बहुत ही गूढ लिखा भाई. आज तो तत्वज्ञान की जैसी चर्चा कर डाली.
रामराम.
अब परिप्रेक्ष्य स्पष्ट हुआ -शुक्रिया हिमांशु !
Acchi lagi yeh vivechna bhi.
सटीक विवेचना .
मैंने उल्टा पढ़ा….पहले व्याख्या और फिर कविता…अच्छा ही किया, वर्ना कविता तो गूढ़ थी अपने लिहाज से।
हिमाँशु भाई कविता तो सवाल खड़े करती है और सवाल का ऐंगल सभी का अपना-अपना हो सकता है। अगर कविता की व्याख्या कवि अपने रसानुसार या अपनी विचारधारा के अनुसार कर दे तो कविता सिमट कर रह जाती है। अरविंद जी की टिप्पणी पर आपका स्पष्टीकरण देना कोई ज़रूरी नहीं था। कविता तो लिख कर खुले में छोड़ दी जानी चाहिए और उस पर सभी के अनुभव अपने अपने ढंग से जब आते हैं तो कविता सार्थक ही नहीं बल्कि व्यापक और सर्वप्रिय हो जाती है।
@प्रकाश जी,
कविता ’हे सूर्य’ मेरी स्वरचित कविता नहीं है । अरविन्द जी की टिप्पणी का इशारा इसी बात की ओर था कि चूँकि यह मेरी खुद की रची हुई कविता नहीं है, तो इसे प्रविष्टि बनाने के पीछे मेरा मतलब क्या है? कविता की कौन-सी संवेदना से मै आकृष्ट हुआ ? और किन अर्थ-संगतियों को पकड़कर मैंने कविता ग्रहण की ?
अरविन्द जी ने यूँ ही कह दिया हो, यह हो सकता है- पर जाने अनजाने वह मेरे लिये महत्वपूर्ण हो उठता है, और उनका इंगित भी ऐसा था कि उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता था ।
आपकी टिप्पणी का धन्यवाद ।