He whom I enclose with my name is weeping
in this dungeon. I am ever busy building
this wall and around; and as this wall goes
up into the sky day by day I lose sight of
my true being in its dark shadow.
I take pride in this great wall, and I plaster it
with dust and send lest a least whole
should be left in this name; and for all
the care I take I lose sight of my true being.
वह इस काल कोठरी में बैठा कर रहा विलाप ॥
मैं तो व्यस्त सदैव चतुर्दिक रचने में प्राचीर
ज्यों-ज्यों प्रतिदिन उठता नभ में इसका दीर्घ शरीर
त्यों-त्यों खोता निज निजता सह तम छाया संताप
हमारा जो है अपना आप ।
इसी महत प्राचीर बीच सर्जित करता अभिमान
सिकता रज लेपित करता हो रंच न छिद्र विधान
इसी ध्यान में खो देता ’पंकिल’ निजता की छाप
हमारा जो है अपना आप ।
पुनः कहूंगा की मूल से अधिक प्रभावित करता अनुवाद !
bahut hee sundar……….atisundar anuwaad
हमारा जो है अपना आप ।
वह इस काल कोठरी में बैठा कर रहा विलाप ॥
अति सुंदर बात कही, क्योकि हमारा अपना है ही क्या ?
धन्यवद
बहुत सुंदर अनुवाद है। इस कार्य की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत सुंदर और सारगर्भित.
रामराम.
gurudev rveendranaath taigor ko vinamra pranaam k alava hum aur kya tippani kar sakte hain ?
hamaari haisiyat hi kya hai ki hum aisee rachnaa par kuchh kah saken..
haan………….aisee rachnaa humne padhi ye hamara saubhagya hai is liye hum svyam ko hi badhaai de kar khush ho len toh uttam hai !
-albela khatri
सुन्दर भावानुवाद!
ऐसा लगता है कि इसे हिंदी में बाबूजी ने लिखा और रविंद्रनाथ जी ने अंग्रेजी में अनुवाद किया. आभार.
हिंदी भाषियों पर आपका एक और उपकार !!