मेरा एक विद्यार्थी ! या और भी कुछ । कई सीमायें अतिक्रमित हो जाती हैं । आज निश्चित अंतराल पर की जाने वाली खोजबीन से उसकी एक चिट्ठी मिली । घटना-परिघटना से बिलकुल विलग रखते हुए आपके सम्मुख लिख रहा हूँ उसका पत्र — प्रभाव और अर्थाभास आपके जिम्मे –
“नमन अनिर्वच !
हमारी, सब की,
यह एक आनुवंशिक आदत है
कि हम बस उसे ही चाह सकते हैं,
दुलार सकते हैं
जिस पर हमारे स्वत्व का प्रभुत्व हो !
जिस पर हमारी एकाकी अर्थवत्ता आच्छादित हो
जिस पर हमारे इतिहास,
हमारे अतीत के स्मारक अविच्छिन्न
अपनी ऐतिहासिकता में निमग्न हों,
जिस के अवलम्ब पर
हमारे अप्रस्फुटित भविष्य की सहस्र संभावनायें-
किसी अविकसित नव्य-यष्टि में संवलित
अनेक मधुर, गुह्य और अज्ञात आभासी प्रतानों-सी कसमसाती –
निर्भर हों ,
हम बस उसे ही चाह सकते हैं,
निरख सकते हैं ।
किन्तु ,
आपका सम्मोहन,
न जाने किस काल-युग में,
ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात अक्षांश-देशांतर पर,
अस्तित्व के किसी अज्ञेय विमा-कोण पर,
संचित, संघनित, संतृप्त
वैभव-विभव-स्थैर्य-सन्निहित
आपकी साधना, अकथ्य आराधना !
वह, आपकी दुर्वह मिठास !
वह अंजानी बेसुध शीतलता !
वह, झरने के बहते पानी-सा
ईषत-उत्पन्न अच्छापन !
हमें मजबूर करता है
कि चाहें हम सब आपको
आपकी स्नेह सन्निधि में परिवेष्टित हो ।
किन्तु,
फिर वे आपकी परिधि पर अवस्थित हजारों व्यूह !
आपका व्यापक फैलाव ! – अज्ञेय उलझाव !
आपकी वो क्रूर, नृशंस निर्वैयक्तिकता !
वो प्राणांतक अनिर्धारित विलगाव !
नोंच डालते हैं भीतर तक जर्रा – जर्रा
कर डालते हैं युगों पुरानी जन्मजात, सहजात
आदतों का विषण्ण बलात्कार
और लथफथ हो जाता है मन का हर कोमल-नाजुक अंग !
और उन पर जमें अनेक दाद-खाज नासूर- सब के सब ।
इस तरह
नष्ट होती है वासना !
प्रणाम !
(उसके चिट्ठे पर भी मिलेंगे कुछ ऐसे ही संवेदना-सूत्र — दुर्लंघ्य, अनिवार, दुर्लभतम ! )
चित्र : रवीन्द्र व्यास की पेंटिंग (वेब दुनिया से साभार)
जैसे गुरु ,वैसे ही शिष्य !मैं अभिभूत ,विस्मित बस आशीर्वचन ही दे सकता हूँ इस गुरु शिष्य परम्परा को –
खूब लिखा अपने..शब्दों के सागर है आप तो..
बेहतरीन शब्दों के प्रयोग से बेहतरीन भाव परोसा है..
बधाई.
उत्कृष्ट रचना ……इससे ज्यादा मै कुछ नही कह पाऊंगा!
अभिषेक जिसे पढ़ाते समय उसकी एकाग्रता, अभिव्यक्ति और अदम्य साहस को देखकर हमलोग चर्चा किया करते थे । यह पत्र उसी अनुभव
की परिणति है । हमारे शिष्य ऐसी चिन्तन शक्ति वाले बने,हमारा मार्गदर्शन काम आया । शिक्षक दिवस से एक दिन पूर्व ही यह पत्र हमारे लिए किसी गुरु दक्षिणा से कम नहीं ।
आपने अतीत की याद दिला दी…..!
हिमांशु जी…!
धन्यवाद है ईश्वर को….जिसने यह सौभाग्य दिया । आभार….।
पत्र पर कुछ नहीं कहूँगा। बस आप के विद्यार्थी को प्रणाम करने को जी चाहता है।
बस नमन आप दोनों को.
रामराम.
इस पवित्र भावना को प्रणाम।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
bahut sundar kavita hai aapke shjishya ki agar sahi samajh pa raha hoon to ek kavitamay (swarachit) tippani se aabhar aapka aur aapke shishya ka:
मैं स्वयं न रहा,
उसने जब ये कहा…
"क्या है जीवन,
स्वप्न अथवा प्रलोभन?
मृत्यु अटल सत्य,
अतः कर मुक्ति कृत्य.
क्यों जानना है विज्ञान तुझे?
इस क्षण से केवल मान मुझे.
मैं पूर्व बिग बेंग के,
मैं पश्चात् टाइम हेंग के .
मैं अन्दर सूष्म प्रकाश के,
मैं बाहर अनंत आकाश के.
मेरा नहीं कोई त्रिनेत्र,
परन्तु वृहद् मेरा क्षेत्र .
नहीं केवल मैं रक्षक सीता का,
परम ज्ञान मुझमें गीता का.
तेत्तिस करोड़ केवल भ्रम हैं ,
तू और मैं केवल हम हैं .
बुद्धि ज्ञान तर्क से ,
इहलोक उहलोक नरक से ….
नहीं मेरा कोई सम्बन्ध ,
ह्रदय से मेरा अनुबंध "
क्या था ये मैंने सोचा ?
जब विवेक ने निद्रा से नोचा .
…हाँ शायद कल्पना के पार,
सत्यता का विस्तृत संसार.
माना जाता स्थिरमति वही व्यक्ति ज्ञानी जितात्मा
जो चित्ताकर्षक विषय की ओर से खींच लेता
स्वेच्छाचारी निज कुपदवी-गामिनी इन्द्रियों को,
स्वेच्छा से ही कमठ अपने अँग ज्यों खींच लेता
एक अच्छी पोस्ट से कुछ अधिक ही है, यह आलेख !
उत्कृष्ट
शिक्षक दिवस पर आपके शिष्य की कविता से बढ़कर आपको क्या उपहार मिला होगा …शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते बाजारवाद से जहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों के बीच सम्मान और अपनेपन के भावना लुप्तप्रायः हो चुकी है …अभिषेक की यह भावना अनुपम है …
कविता की तारीफ में कुछ कहने में तो मैं हमेशा की तरह अपने आप को अक्षम पा रही हूँ…शब्द माला में गुंथे से प्रतीत हो रहे हैं सच यही है की आप जैसे शिक्षक ऐसे योग्य विद्यार्थी के अधिकारी हैं ही …शिक्षक दिवस के ढेरों शुभकामनायें …!!