उन दिनों जब दीवालों के आर-पार देख सकता था मैं अपनी सपनीली आँखों से, जब पौधों की काँपती अँगुलियाँ मेरी आत्मा को सहला जाती थीं, जब कुहासे की टटकी बूँदे बरस कर भिंगो देती थीं मन-वसन, जब पारिजात-वन का तारक-पुष्प झर-झर झरता था मेरी चेतना के आँगन – तब भी तुम अथाह की थाह लेती हुई न जाने किधर अविरत देखती रहती थीं ! तुम्हारा इस तरह निर्निमेष शून्य की ओर देखना मेरे प्राणॊं में औत्सुक्य भरता था । मैं सब कुछ तजकर तुम्हारी उन्हीं आँखों की राह पर बिछ-बिछ जाना चाहता था, और इच्छा करता था कि तुम्हारी अन्तर्यामिनी आँखें, तुम्हारी पारदर्शिनी आँखें मेरे अन्तर के हर भेद को पकड़ लें, उन्हें खोल दें ।
आज मैं अकेला हूँ । मैंने अपना यह एकान्त सँजो कर रखा था तुम्हें याद करने के निमित्त । आज जब मैं अपने मानस, अपनी चेतना के अत्यन्त एकान्त में तुम्हें स्मरण कर रहा हूँ, तो लगने लगा है कि तुम्हारी प्रेमपूर्ण, सजल आँखें मुझे देख रहीं हैं । मुझे लग रहा है कि वह आँखें मुझे आत्मसात कर लेंगी । और अचानक ही मैं संतप्त हो उठा हूँ । मुझे सम्हालों मेरे सुहृद ! यह ’मेरे” कहना तुम्हें बुरा तो नहीं लगा ! यह एकाधिकार कसक तो नहीं गया कहीं उर-अंतर ! पर मैं क्या करूँ ? जब मेरी सिहरन अनुभूति के द्रुत-गति तान लेती थी, जब अन्तर का प्यासा-पपीहा पुकार उठता था करुण-भाव, जब एक अन्तहीन-से लगने वाले विरह से कँप-कँप जाता था यह उदास मन, तब वृक्षों, वनस्पतियों, फूल-पत्तों, सागर-पर्वतों, दिग-दिगन्तों को साक्षी मान मैं तुम्हें सिर्फ अपना ही जान पुकारता था । मैं और मेरा यह भावित हृदय तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता है कि मेरा यह प्रेम किसी भाव-विभाव से अनुप्राणित नहीं, निःसीम है यह ।
मैं तुम्हें स्मरण कर रहा हूँ । उच्छ्वास की हवा बार-बार सिहरा रही है मुझे । कितनी करुणा है इसमें ? इस गीली, उदास हवा को तुम तक पठा दूँ ? समझ जाना इस संतप्त, व्यथित हवा की छुअन से कि तुम्हारा विरह मेरे प्राणों की कँपकँपी बन गया है । मेरी प्रेमातिरेकी भावना की गंध और हृदयावस्थित प्रेम की स्मृतियाँ सँजोकर यह हवा तुम तक जायेगी, तो विचार करना कि तुम कितने अभिन्न हो मेरे !
यद्यपि तुम सीमाहीन हो, निःसीम – पर क्या तुम्हें मेरा आत्मनिवेदन स्मरण है ? क्या वह आत्मनिवेदन भाव की सीमाओं में बँधा था ? नहीं न ! असीम ही था न ! फिर निःसीम को निःसीम के आत्मनिवेदन के चिन्तन का कैसा भाव ! पर इसी निःसीमता में एक असीम व्याकुल भाव है जो सर्वत्र उपस्थित है, सर्वत्र विचरण करता हुआ – सबके प्राणों में ठहरा हुआ – प्रेम ।
आज मैं अकेला हूँ । अपने सँजोये एकान्त में तुम्हारा स्मरण कर रहा हूँ, तुम्हें पुकार रहा हूँ । क्या तुम आओगे ? अपना अस्तित्व सजा कर खड़ा हो जाउँगा मैं तुम्हारे स्वागत में । मेरे चटक अनुराग का पुष्प और उर-कोकिल की रागिनियाँ तुम्हारा मंगल-स्वागत करेंगी । अर्पित तो न कर सकूँगा कुछ, बस रख दूँगा तुम्हारे पास- आकाश, सूरज, धरती, गंध और प्रवाह ।
waah….aah…subah-savere आकाश, सूरज, धरती, गंध प्रवाह aur ye sundar rachna!
संवाद का द्वैत पसंद आया। पर अद्वैत होने के लिए मचल रहा है।
अद्भुत हिमांशु ! एको रसो करुनेव गलत लग रहा है -होना चाहिए एको रसो प्रेम एव ! जीवन का श्रृगार ही प्रबल पक्ष है क्यों ? संयोग वियोग को दोनों को समेटे !
एकोSहम् द्वितीयोनास्ति…
bahut hi sundar likha hai himanshu.
ghughutibasuti
lage rahiye 'Ashish ji' sehdhmaari main….
…kaam karte hue lag rahe ho himanshu ji ke blog main.
Sahi tarah se kaam hona chahhiye !!
nahi to paise wapis.
hahahaha
🙂
चलिए अच्छा लगा कि आप का टेम्पलेट सही हो गया है और कलेवर भी अच्छा है
atyant sundar.
बहुत गहरा लिखा है आपने..
@ दर्पण जी, आखिर आपने हमें पकड़ ही लिया 🙂
हैपी ब्लॉगिंग
इस नायाब रचना को पढ़ते समय लगातार आँखों में नमी और झुरझुरी सी होती रही …अद्भुत …कवितायेँ तो सतत प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं …गद्य में भी प्रस्तुति बहुत सुन्दर बन पड़ी है …आकंठ प्रेम में डूब कर लिखा प्रेमपत्र ही लग रहा है …
निःसीमता में एक असीम व्याकुल भाव है जो सर्वत्र उपस्थित है, सर्वत्र विचरण करता हुआ – सबके प्राणों में ठहरा हुआ – प्रेम ।
निःसीमता में असीमता का व्यकुल भाव…प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति …आज तो आपके लेखन ने महादेवी और अमृता प्रीतम के स्त्रीजन्य प्रेमिल ह्रदय से भरी लेखनी को समाहित करने में सक्षमता हासिल कर ली है …
बहुत सुन्दर …!!
पढ़ते पढ़ते मन न जाने कहाँ खो गया ..बहुत ही अदभुत लिखा है आपने .रूमानी एहसास और न जाने कितने भाव एक साथ आये शुक्रिया इस को पढ़वाने के लिए कुछ हलचल तो यह अब दिल में मचा ही देगा लिखने के लिए दिल में 🙂
kya kahun himanshu ji
bahut gahra likha hai .. prem ki abhivyakti ko aapke shabdo ne to jaise jaadu se bhar diya ho . padhte padhte to main pata nahi kahan chala gaya …
bhai .. man nishabd hoon aur kya kahun ..
regards
vijay
http://www.poemsofvijay.blogspot.com
लाजवाब अभिव्यक्ति. बधाई.
यह बिल्कुल सच है जै सा की रंजना जी ने कही है कि ………….पढ्ते पढते मन कही खो गया ……….सच मे मै भी कही और चला गया था लगा ही नही कि मै कुछ पढ रहा हूँ ऐसा लगा कि मै बह रहा हूँ ……….बहुत ही सुन्दर!
@Darpan Shah Darshan, आशीष जी के बिना इस ब्लॉगजगत में मेरा तारनहार और कौन है ? मेरी ब्लॉगिंग का बहुत कुछ आशीष जी के कारण ही अभिव्यक्त है । आभार इनका ।
@ Pankaj Mishra, धन्यवाद । जब आशीष जी ही साथ लग गए तो कैसा गम !
@All, आभार टिप्पणी करने और प्रविष्टि की सराहना के लिये ।
शब्दो के साथ निःसीम ने निःशब्द कर दिया….
कल्पना कहूं, गहराई कहूं,ऊंचाई कहूं,शब्दों का अब तक का अनदेखा प्रयोग सब जगह निःशब्द पाता हूं ,अपने आपको…….
bahut gahra likha hain aapne aankhen num ho gayi
टेप्मलेट अच्छा है …..पोस्ट के बारे क्या कहूँ !!!!( क्या यह पोस्ट पोस्ट करने से पहले एक बार भी आपको कोई झिझक नही हुयी ……?…..यह अत्यंत निजी बात ……..)
अद्भुत शब्द संयोजन ……अद्भुत
Dil ke bhavon ko shabdon ke roop me abhivyakt karna aasaan kam nahi….
bahut khoob….
बहुत सुंदर बात आप ने कही, शायद यह कईयो के दिल का एक कोना सा है. इस सुंदर रचना के लिये धन्यवाद
छायावादी गद्य जैसी कोई चीज भी होती है क्या?
बहुत हीं सुन्दर व सुकोमल भाव । आभार
शब्द-प्रवाह में डूब कर मेरा एकांत भी सज उठा है। आपकी लेखनी को सलाम है।
…आपकी समस्त शुभकामनाओं ने तमाम दवाओं को बूस्ट किया है।
maine ek comment kiya tha himaanshuji
publish nahi hua
डूब चुका आदमी उतराने के बाद कितनी बात कर सकता है?
बस यही कहूँगा … आप ने कुछ भूली साँसों की याद ताजी कर दी।
ये निहायत ही लौकिक वातावरण के साथ शुरू कर सूफियाना और गीतांजलि की भाव भू में कैसे पहुँच गए? …
अभिषेक जी ने ठीक ही कहा है – छायावादी गद्य भी होता है ।
..जीय रजा जीय..
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कलेवर अच्छा लगा। टिप्पणी सूचक फॉण्ट का रंग लाल के बजाय कुछ हल्का कर दें तो और उभर कर आए। अभी छिप सा रहा है। बाइस्कोप हटा कर अच्छा किया लेकिन इतनी सादगी ! कुछ फूल पत्ती डाल दिए होते।
@ Vijay Kumar Sappatti ji, जी, आपने टिप्पणी दी थी पहले, और वह प्रकाशित भी हुई थी । मेरे ब्लॉग पर मॉडरेशन की सुविधा नहीं है, इसलिये सभी टिप्पणियाँ प्रकाशित होती हैं । आपका स्नेह-संवर्धन मिलता रहे, यही आकांक्षा है । स्नेहाधीन !
@ गिरिजेश जी, अरे भइया, न इधर चलने देते हैं, न उधर । बाइस्कोप तो हटवा दिया, साफ-सुथरा ब्लॉग सादा लग रहा है आपको ! अजब है ! वैसे फूलपत्ती की बात तो सही कही आपने । हमारे तारणहार तो आशीष जी ही हैं , बतियाते हैं उनसे । टिप्पणी का आभार ।
वाणी जी से सहमत !
मजा आ गया ।
भावनुभाव संचारीभाव….
साधु साधु ।