कुछ चरित्र हैं जो बार-बार दस्तक देते हैं, हर वक्त सजग खड़े होते हैं मानवता की चेतना का संस्कार करने हेतु। पुराने पन्नों में अनेकों बार अनेकों तरह से उद्धृत होकर पुनः-पुनः नवीन ढंग से लिखे जाने को प्रेरित करते हैं। इनकी अमित आभा धरती को आलोकित करती है, और ज्ञान का प्रदीप उसी से सम्पन्न होकर युगों-युगों तक मानवता का कल्याण करता रहता है। यह प्रविष्टियाँ ऐसे ही महानतम चरित्रों का पुनः स्मरण हैं। पहली कड़ी के बाद प्रस्तुत है दूसरी कड़ी।
करुणावतार बुद्ध: (द्वितीय दृश्य )
(सारथी प्रवेश करता है । प्रणाम की मुद्रा में सिर झुकाकर राजा की आज्ञा माँगता है ।)
राजा: सारथी ! मेरे लाडले की नगर दर्शन की अभिलाषा तृप्त हो गयी?
सारथी: हे प्रजावत्सल! आज तक आपकी सेवा में व्यतीत हुई आयु भर में मैंने कभी ऐसा सारथ्य किया, न कभी ऐसा रथी देखा और न ऐसी विलक्षण अश्वगति देखी। ऐसी होनी भी नहीं देखी महाराज, जैसी इस यात्रा में घटित हुई।
राजा: क्या? कैसा? बताओ, बताओ!
सारथी: महाराज, आपके नयनों के तारे ने जैसे ही रथ पर पाँव रखा, वैसे ही मुझे लगा जैसे रथ को किसी ने अमोघ संजीवनी विद्या से अभिमंत्रित कर दिया है। एक अवर्णनीय सुरभि ने रथ को वलयित कर लिया। घोड़े मेरी लगाम के बंधन से मुक्त हो जैसे विचरने लगे। सिद्धार्थ, जो यूँ तो शांत हैं, वाचाल हो गये। कभी स्फुट, कभी अस्फुट शब्दों में कुछ उच्चरित करने लगे जैसे किसी अदृश्य जीवन-संगी के हाथों में हाथ डाल दिया हो। “समय हो गया है, बहुत बेला बीत चुकी’, ’सुन रहा हूँ’, ’बहुत हो चुका, अब नहीं चूकूँगा’, ’क्षमा करना, प्राण! चलो,चलो’ आदि अनेक असंबद्ध बातें बोलते रहते थे। मुझे आवश्यकतानुसार कभी पूछते, कभी मुस्कराते, फिर रोते, आँसू पोंछते, उदास होते, आँखे बंद कर लेते, धरित्री को नमन करते, यहाँ-वहाँ, रुको-चलो आदि संवेगों में ही उनका समय बीत गया। कहते थे –
“मुझे व्यक्ति से समय बना दिया गया है। अब मुझे अहोरात्र जागना है।मेरा कोई गोत्र नहीं , कोई नाम नहीं। मैं अजन्मा हूँ। मेरे लिये अब कोई सूर्योदय नहीं, कोई सूर्यास्त नहीं, कोई रंग नहीं, कोई राग नहीं।….”
राजा: प्रिय सारथी! यह मैं क्या सुन रहा हूँ? अरे, ऐसी कोई घटना तो नहीं घटी कि तुम इतने उद्विग्न-से हो रहे हो?
सारथी: हे भाग्यविधाता! कुछ कहते नहीं बन रहा है वह दृश्य विधान। अभी मैं कुछ ही क्षण चला था चमचमाते नगर के राजमार्ग पर कि औचक घने वृक्षों से भरा जंगल मिल गया। मैं स्तब्ध था कि यहाँ कैसे? वहाँ की हवा विचित्र थी। न उसमें शीतलता ही थी न जलन। एक काँसे का पात्र काँपती हँथेलियों में सम्हाले दीन-हीन एक भिखारी ठीक सामने खड़ा हो गया। वह रिरिया रहा था –
तुम्हारे चरणों में आ पड़ा हूँ , निहार लो हे दयालु भगवन! हमारी बिगरी जनम-जनम की सँवार दो हे दयालु भगवन!
उस गरीब की धूसर-धूमिल लटें मलिन कंधों को छू रही थीं। चीथड़े पहने था। रीढ़ की हड्डी धनुषाकार हो गयी थी। धँसी-धँसी-सी आँखों की पलकों में पर्याप्त श्यामलता थी। वाणी कंपित थी। पाँव डगमगा रहे थे। लाठी बड़ी कठिनाई से सम्हाल पा रहा था। पलकों में भूख समाई थी। कंपित वाणी में बोला-
“दया करो दानी। बड़ी दूर से आ रहा हूँ। फटे पैर और इस जीर्ण शरीर से आगे चला नहीं जाता। इस चेहरे पर पड़ी झुर्रियों की सैकड़ों लकीरें और इनमें भरे पसीने को तुम नहीं देखोगे तो कौन देखेगा? मैले-मैले, काले-काले हाँथ-पाँव वाले को तुम्हीं ठुकरा दोगे तो फिर दुनिया में और कौन सहारा देने वाला है। एक बार मेरी ओर दया से देख लो बस यही चाहता हूँ। हे दानी! मेरी एक ही चाह है कि तुम्हारे मधुर कोमल चरणों पर अपनी सारी लघुता समेटे मिट जाऊँ। बोलो, देते हो मुझे मेरी भीख?”
इतना कहते-कहते वह लुढ़क गया था। सिद्धार्थ कूद पड़े नीचे। बाँहों भर भेंटा उसे। फफक-फफक कर खूब रोये। अंग-रक्षक किसी को रोक नहीं पा रहा था। उनकी गर्म श्वाँसे जैसे कह रहीं थीं- “मैं दुख मिटा कर रहूँगा। यह देखा नहीं जाता।”
(फटी-फटी आँखों से सारथी का मुख निहारते हुए-)
राजा: आह! मेरा पुरुषार्थ यह भी नहीं कर सका कि एक दिन भी उदासीन बेटे को दुनिया के दुख से दूर रख सकूँ। फिर क्या हुआ? वत्स बोलो!
A blogger since 2008. A teacher since 2010, A father since 2010. Reading, Writing poetry, Listening Music completes me. Internet makes me ready. Trying to learn graphics, animation and video making to serve my needs.
भाई ! पढने में मजा आया | दुःख कि पृष्ठभूमि का बनना अच्छे से दिखाया है आपने | सुख के भ्रम में डूबे राजा से यह कहलवाना सटीक लगा —'' आह ! मेरा पुरुषार्थ यह भी नहीं कर सका कि एक दिन भी उदासीन बेटे को दुनिया के दुख से दूर रख सकूँ । '' जयशंकर प्रसाद कि पंक्ति याद आ गयी – ' अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है | ' हाँ , ' दुःख – निरूपण ' के लिए ' रहस्य – विधान ' रचनाकार की मर्जी पर … सुन्दर प्रस्तुति की बधाई … …
यह तो हम सब का प्र्यास रहता है कि हम अपने बच्चो को दुख दर्द से दुर रखे, लेकिन होनी को कोन टाल सकता है, आप ने बहुत सुंदर चित्रण किया इस प्रसंग का. धन्यवाद
यह नाटक हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए एक उपलब्धि साबित होगा। देखना है कहाँ तक ले जाते हैं हिमांशु जी इसे ! नाटक का अतिमानवीय सा वातावरण दो उद्देश्यों की पूर्ति करता है: (1) अपने जीवनकाल में ही 'भगवान' बन चुके बुद्ध के माध्यम से नई सोच और स्वतंत्र मुक्त विमर्श की ओर मानव के बढ़े महान कदमों की पृष्ठभूमि (2) उन क्षणों की विशिष्टता – रोज रोज नहीं, सभ्यता के हजारो वर्ष बीत जाने पर भी कभी कभार ही आते हैं ऐसे क्षण। इनमें अतीन्द्रियता तो होनी ही चाहिए।… अनजाने ही महराज ने फैंटेसी गढ़ दी है – अवर्णनीय सुगन्धि वलय, अश्वों का वल्गा विहीन हो विचरना, सिद्धार्थ का प्रलाप, राजमार्ग पर सहसा उद्यान, विचित्र हवा और अचानक ही भिखारी का पदार्पण – भैया, अद्भुत ! …कभी मैंने ब्लॉगरी से नई भाषा विकसित होने की बात की थी। जरा भिखारी के फ्लिकर लिंक फोटो को देखिए तो सही ! आधुनिक काल का झुका हुआ यूरोपियन भिखारी है यह! दु:ख की सार्वत्रिकता और सार्वकालिकता को बखूबी बता गए इस एक लिंक के द्वारा। खूबसूरती तो देखिए फोटो को यहाँ न देकर रसभंग और समय से 'मैच' न कर पाने की दुविधा से भी बच बचा गए। ..अनजाने किया क्या? या जान बूझ कर? अब तो आप ही बताइए। यह भी अनजाने ही है क्या कि भिखारी का चेहरा दिखता ही नहीं !
"समय हो गया है, बहुत बेला बीत चुकी’, ’सुन रहा हूँ’, ’बहुत हो चुका, अब नहीं चूकूँगा’, ’क्षमा करना, प्राण ! चलो,चलो’ आदि अनेक असंबद्ध बातें बोलते रहते थे ।
परम ज्ञान और पागलपन दोनों बिल्कुल ही विपरीत मनः स्थिति हैं, पर क्या 'चित' और 'पट' का 'North Pole' और 'South Pole' का अलग कोई अस्तित्व हो सकता है, मैं शायदा अपनी बात को समझा न पाऊं पर पागलपन यदि एक मनोवैज्ञानिक 'Atomic Bomb' है तो, बुद्ध हो जाना 'पालतू radioactive ऊर्जा'
——————————————————— पढ़ रहा हूँ और बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने हिस्से की चेजें समेट रहा हूँ, कुछ उन कृत्यों मैं से एक जहाँ लेखक का ध्यान कम ही आता है, पाठक अपने को ही इसे पढ़ लेने पर सौभाग्यशाली समझता हुआ चलता है.
bahut achcha laga padh kar….
आपकी पोस्ट पढते हुए "लाइट ऑफ एशिया" की पंक्तियां याद आ रही हैं।
वास्तव में बुद्ध हमारे देश के एक ऐसे चरित्र हैं, जिनकी घनघोर उपेक्षा की गयी है।
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11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
वृत्तांत में बालक बुद्ध के प्रारब्ध और परिवेश में रहस्यावरण का बोध हो रहा है -यह सहज है या सायास हिमांशु ?
बेहतरीन प्रयास..अरविन्द जी का प्रश्न, मेरा भी प्रश्न है…
sशायद ये हम सब का ही प्रश्न है। बहुत बडिया प्रयास बधाई
भाई !
पढने में मजा आया |
दुःख कि पृष्ठभूमि का बनना
अच्छे से दिखाया है आपने |
सुख के भ्रम में डूबे राजा से
यह कहलवाना सटीक लगा —'' आह ! मेरा पुरुषार्थ
यह भी नहीं कर सका कि एक दिन भी उदासीन
बेटे को दुनिया के दुख से दूर रख सकूँ । ''
जयशंकर प्रसाद कि पंक्ति याद आ गयी – ' अधिकार-सुख कितना
मादक और सारहीन है | '
हाँ , ' दुःख – निरूपण ' के लिए ' रहस्य – विधान ' रचनाकार
की मर्जी पर …
सुन्दर प्रस्तुति की बधाई … …
यह तो हम सब का प्र्यास रहता है कि हम अपने बच्चो को दुख दर्द से दुर रखे, लेकिन होनी को कोन टाल सकता है, आप ने बहुत सुंदर चित्रण किया इस प्रसंग का. धन्यवाद
यह नाटक हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए एक उपलब्धि साबित होगा। देखना है कहाँ तक ले जाते हैं हिमांशु जी इसे !
नाटक का अतिमानवीय सा वातावरण दो उद्देश्यों की पूर्ति करता है:
(1) अपने जीवनकाल में ही 'भगवान' बन चुके बुद्ध के माध्यम से नई सोच और स्वतंत्र मुक्त विमर्श की ओर मानव के बढ़े महान कदमों की पृष्ठभूमि
(2) उन क्षणों की विशिष्टता – रोज रोज नहीं, सभ्यता के हजारो वर्ष बीत जाने पर भी कभी कभार ही आते हैं ऐसे क्षण। इनमें अतीन्द्रियता तो होनी ही चाहिए।… अनजाने ही महराज ने फैंटेसी गढ़ दी है – अवर्णनीय सुगन्धि वलय, अश्वों का वल्गा विहीन हो विचरना, सिद्धार्थ का प्रलाप, राजमार्ग पर सहसा उद्यान, विचित्र हवा और अचानक ही भिखारी का पदार्पण – भैया, अद्भुत !
…कभी मैंने ब्लॉगरी से नई भाषा विकसित होने की बात की थी। जरा भिखारी के फ्लिकर लिंक फोटो को देखिए तो सही ! आधुनिक काल का झुका हुआ यूरोपियन भिखारी है यह! दु:ख की सार्वत्रिकता और सार्वकालिकता को बखूबी बता गए इस एक लिंक के द्वारा। खूबसूरती तो देखिए फोटो को यहाँ न देकर रसभंग और समय से 'मैच' न कर पाने की दुविधा से भी बच बचा गए। ..अनजाने किया क्या? या जान बूझ कर?
अब तो आप ही बताइए।
यह भी अनजाने ही है क्या कि भिखारी का चेहरा दिखता ही नहीं !
मैं दुख मिटा कर रहूँगा । यह देखा नहीं जाता । "…
यह पहला चरण जिसने सिद्धार्थ के बुद्ध होने को गति प्रदान की …
बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति ….!!
"समय हो गया है, बहुत बेला बीत चुकी’, ’सुन रहा हूँ’, ’बहुत हो चुका, अब नहीं चूकूँगा’, ’क्षमा करना, प्राण ! चलो,चलो’ आदि अनेक असंबद्ध बातें बोलते रहते थे ।
परम ज्ञान और पागलपन दोनों बिल्कुल ही विपरीत मनः स्थिति हैं, पर क्या 'चित' और 'पट' का 'North Pole' और 'South Pole' का अलग कोई अस्तित्व हो सकता है, मैं शायदा अपनी बात को समझा न पाऊं पर पागलपन यदि एक मनोवैज्ञानिक 'Atomic Bomb' है तो, बुद्ध हो जाना 'पालतू radioactive ऊर्जा'
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पढ़ रहा हूँ और बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने हिस्से की चेजें समेट रहा हूँ, कुछ उन कृत्यों मैं से एक जहाँ लेखक का ध्यान कम ही आता है, पाठक अपने को ही इसे पढ़ लेने पर सौभाग्यशाली समझता हुआ चलता है.