करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4,5 ,6, 7 के बाद प्रस्तुत है आठवीं कड़ी…
ब्राह्मण: इतनी विकलता क्यों वैरागी? परास्त पौरुष और आत्मघाती अधैर्य के वशीभूत क्यों हो गये? तुम्हारा मन तो जैसे नदी के दूसरी ओर के अँधियार के सदृश हो गया है। कहने के लिये उस पार, सहने के लिए इस पार! अरे तरुणतापस! कुछ दिन रहो हमारे पास! यज्ञाग्नि की ऊष्मा से अपनी जड़ता जाड़ को तोड़ने का यत्न करो! सत्संगति की सुरभि से अपनी जीवन बगिया मँह-मँह करो!
सिद्धार्थ: जगत की जिस जटिल पहेली ने मुझे आक्रान्त कर लिया है, उसे निर्मूल करें ब्राह्मण देव! दुख है तो क्यों है और वह मिटे कैसे ? व्यापक विश्वयातना से त्राण कैसे मिले? आप मेरी विकलता समझें! मुझे दिशा दें। मेरा आलोक बनें। मेरी विचलित उद्विग्न मति को स्तिथ प्रज्ञा का पाथेय दें।
ब्राह्मण: मनुष्य की बुद्धि बहुत थोड़ी दूर तक देख सकती है। जीवन की अखिल योजना परमात्मा के हाथ है। उसी को पूरी ज्यामिती का पता है। हमारे सम्पूर्ण जीवन के पूर्ण चक्कर को वह, केवल वही देख सकता है। पता नहीं कितने युगों से किस-किस रूप में हमारे जीवन की धारा बहती चली आ रही है। पता नहीं कैसे कैसे व्यतिरेक, विषमता, बाधा, दुख, आनंद, पुलक आदि में प्रवहित होती चली जा रही है और अनंत अंबुधि के वक्षस्थल में अपने को लय करके अपने स्रोत में सुख से सो जायेगी। हमारे इस जन्म के पहले भी तो हमारा जीवन-प्रवाह था और मृत्यु के अनंतर भी तो वह बना रहेगा। क्या उसे हम समग्र रूप में देख सकते हैं? हमारा देखना अधूरा है, अपूर्ण है, अस्त-व्यस्त है, खंडित है, विकृत है। अतः ’क्या’, ’कैसे’, ’क्यों’ की हम व्यर्थ चिन्ता करके व्यग्र क्यों हों? भविष्य को जिसने रचा है, वही उसकी सँभाल भी करेगा। तुम जिस गोरखधंधे में उलझे हो, जिस उलझन को सुलझाना चाहते हो उसमें और उलझना, सिर खपाना बच्चों-सी मूर्खता नहीं तो और क्या है!
दूसरा ब्राह्मण: और अरे सुदर्शन! जन्म-मरण के चक्रव्यूह को बेधने वाला अभिमन्यु कभीं पैदा ही नहीं हुआ। जिसने इसे रचा है, वही इसका रहस्य जानता है और उसी के साथ हम भीतर प्रवेश भी कर सकते हैं। प्रभु की शरण लो! उसके प्रकाश के बिना इस घोर तिमिर में एक डग आगे बढ़ना खतरे से खाली नहीं है। हृदय में उसकी मूर्ति, चित्त में उसकी स्मृति, प्राणों में उसकी प्रीति- यही तेरे प्रश्न का उत्तर है, तेरी समस्या का समाधान है, तेरी उलझन की सुलझन है। जिस प्रभु ने गर्भ से तुम्हारी रक्षा की, जो प्रतिपल तुम्हें सम्हाल रहा है, क्या वह भविष्य में तुम्हें निराधार छोड़ देगा? एक पल भी उसके सहारे के बिना तुम टिक सकोगे? अतः उसकी चरण शरण ही कल्याणी है।
सिद्धार्थ: हाय रे , नर की दुर्बलता, दुर्दशा! वह बुरी तरह भाग रहा है शान्ति के लिये, आनंद के लिये, परितृप्ति के लिये और मिलता है उसको बदले में दुख, अशांति, ज्वाला, विछोह! नहीं समझ पा रहा हूँ आपकी प्रभु, परमात्मा, ईश्वर, आत्मा, समर्पण, सत्संग, प्रार्थना, परिक्रमा, शोध, बोध, विज्ञान, विश्वास, नीति, अनीति की बातें। अब तक कहाँ सोया है वह यदि परमात्मा है तो! अब तक क्यों खोयी है वह यदि आत्मा है तो! अब तक क्यों निरानंद हैं दिशायें यदि वह आनंद है तो! आप का यह यज्ञ-विधान, कर्मकाण्ड, वाह्याचार, आपकी स्वाहा-स्वधा सब आपको मुबारक हो! मेरा समाधान यहा नहीं है। मेरे चरण इस परिक्रमा के लिये नहीं बने हैं। बहुत हो गया। वसुधे तेरी पीर की प्रकृति ये हविष्य-भोजी पंडे-पुजारी नहीं जान सकते हैं। जगत दुखहारी यदि कोई ’हरि’ है तो हमें अपना परिचय दे, परिचय दे!
(दोनों हाथ उठाकर फूट-फूट कर रोने लगते हैं। )
ब्राह्मण: अरे योगी! दीख पड़ने वाली विपरीतता और प्रतिकूलता में जब ’जीवनधन राम’ का छिपा हुआ हाथ दिख जाय तो फिर हँसे बिना नहीं रह पाओगे! स्वांग में छिपे हुए देवता का सभी रूप हृदय को लुभाने वाला है। चाहे वह जिस रूप में आये, उसके चरण सदैव तुम्हारे हृदय पर ही रहेंगे। यह तो युद्ध-क्षेत्र है प्यारे! यह तो कर्मभूमि है! इसमें कैसा घबराना? तुम उसके विराट अभिनय के एक पात्र हो! बैठो मेरे पास! “महाजनो येन गतः सपंथा।”
सिद्धार्थ: मैं बंधन-क्रंदन कुछ भी नहीं मानूँगा। दिशा नहीं देखूँगा, दिन-क्षण नहीं गिनूँगा। मैं तो उद्दाम पथिक हूँ।
(आँखें मूँद लेते हैं। अंतराल में पूर्वदृष्टा तपस्विनी प्रकट दिखायी पड़ती है। वह आगे बढ़ने का अंगुलि निर्देश करती है। उसकी मधुर प्रेरक हँसी में अमृत-वर्षण है। सिद्धार्थ बड़बड़ाने लगते हैं-)
नई दिशा का स्वर्ण द्वार खुलने में अभी कितनी देर है। बचें या मरें, नाव खे कर पार ले जाना है। पृथ्वी का जितना दुःख है, पाप है, जितना अमंगल है, जितनी हिंसा है, जितना हलाहल है- सब तरंगित हो उठे हैं मेरे सामने। फिर भी नाव खे कर ले चलनी है। अखिल विश्व के दुख-दुरितों के हाहाकार में अनंत आशा को चित्त में लेकर जाना है, जाना है, आगे जाना है।
(तपस्विनी फिर मुस्करा कर अंगुलि का इशारा करती है ।)
ब्राह्मणों रख दो अपनी निन्दा-स्तुतिवाणी! रखे रहो अपने साधुत्व का अभिमान! मुझे प्रलय-पयोधि पार करना है। नये सृजन की नई विजय-ध्वजा फहराना है।
ब्राह्मण: चेतो तरुण वयस! ’हरिं नराः भजंति येति दुस्तरं तरंतिते।” हठवादी नहीं बनो!
सिद्धार्थ: (आँखें बंद किये ) आदेश आया है। बन्दरगाह का समय समाप्त हुआ। अज्ञात समुद्र के तीर पर अज्ञात है वह देश। वहीं के लिये प्रचण्ड आह्वान जग उठा है। टूट पड़े आँधी, उमड़े तूफान, सिद्धार्थ को तीर पार कर अज्ञात देश जाना है।
(तपस्विनी मुस्करा कर अँगुलियाँ हिला रही है। सिद्धार्थ उस मंदस्मित में खो गये हैं।)
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पढ़ते – पढ़ते सोच रहा हूँ कि कितना अंतर है बुद्ध और नचिकेता में , एक को यम मिले तो दूसरे को ब्राह्मण ! एक जगह देव आते हैं और दूसरी जगह मानव , रास्ता दिखने (?) | जो यहाँ है शायद वहां नहीं .. यहाँ जितने प्रश्न वहां नहीं हैं .. आपने प्रश्नों को उठाया भी है सटीक ढंग से .. इससे नाटक और गठ गया है .. ……… आभार ,,,
maafi chahti hun….google transliteration ji kuch khafa hain hamse… arvind ji iska manchan jab bhi karein …hamein bataiyega zaroor.. Himanshu ji, aapki prastuti..ab prashansa ki mohtaaj nahi hai…iska apna ek star hai jahan tak pahunchna har kisi ke vash ki baat nahi hai…meri to bilkul bhi nahi…bahut hi samriddh bhasha hai aapki aur bhav sansaar vishaal hai.. aapka aabhar…ise aapne padhne ka avsar diya..
अतः ’क्या’, ’कैसे’, ’क्यों’ की हम व्यर्थ चिन्ता करके व्यग्र क्यों हों ? भविष्य को जिसने रचा है, वही उसकी सँभाल भी करेगा…. प्रसन्न हुई जा रही थी की यह ब्राह्मण तो हमारे जैसा ही निकला …. मगर ब्राह्मणों की निंदा स्तुति वाणी को अनसुना कर सिद्धार्थ का हठी होकर नहीं रुकना …तपस्विनी की आगे बढ़ने का निर्देश देती मुद्रा सिद्धार्थ के अनुगामिनी होने पर विवश कर रही है ..किस सत्य की तलाश में हैं ….कहाँ मिलेगा वह ….कैसे मिलेगा ..??
एक दम से ही प्रश्न बदल गए हैं …नहीं ,बदले नहीं …..क्या क्यों और कैसे की चिंता वही है, सन्दर्भ बदल गया …..!!
भाव प्रवणता एकाकार हो कुछ ऐसा ही अभिव्यक्त कराती है । नयेपन में जिज्ञासा अपने घूंघट में और भी अच्छी लगती है । अभिमंचन को लेकर हो रही उत्सुकताओं की कतार में स्वयं स्थान बना लूंगा….? सोच रहा हूं ।
नाट्य-मंचन तो हो ही..पर अपने पूरे साजो-सामान के साथ…और विमर्श गहराता है तो लगता कि जब अकेले मे बैठ कुछ गहरे हम उतरते हैं..तो क्या कुछ इसी तरह का नही सोचते हम सब..बस शब्द-चित्र भिन्न-भिन्न होता है..!
GD पूर्वाग्रह नहीं आप पूर्वग्रह में अटके हैं। साहित्य ऐसे नहीं पढ़ा जाता.
हिमांशु, मुझे यहाँ O2 दिखती है. ऑक्सीजन- 2 माने दुगुना. लेकिन आप पढ़ नहीं रहे. हल्के में ले रहे हैं इसे. प्लीज ऐसा न करिए. यह mahadrama होगा क्यों कि आप में दम है. स्तिथ प्रज्ञा नहीं स्थित प्रज्ञा. छोटी छोटी और भी गलतियाँ हैं. बचो. ये प्रलय पयोधि क्या बला है?
मैं सोच रहा हूँ की इसका अभिमंचन कैसे और कहाँ किया जाय ! सारनाथ में क्या ?
पढ़ते – पढ़ते सोच रहा हूँ कि कितना अंतर है
बुद्ध और नचिकेता में , एक को यम मिले तो
दूसरे को ब्राह्मण ! एक जगह देव आते हैं और
दूसरी जगह मानव , रास्ता दिखने (?) |
जो यहाँ है शायद वहां नहीं ..
यहाँ जितने प्रश्न वहां नहीं हैं ..
आपने प्रश्नों को उठाया भी है सटीक ढंग से ..
इससे नाटक और गठ गया है ..
……… आभार ,,,
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट….
वाह बहुत ही सुंदर ढंग से आप ने यह लेख लिखा, धन्यवाद
बेहतरीन प्रस्तुति..अरविन्द जी, जब मंचन हो तो सूचना जरुर मिले.
maafi chahti hun….google transliteration ji kuch khafa hain hamse…
arvind ji iska manchan jab bhi karein …hamein bataiyega zaroor..
Himanshu ji,
aapki prastuti..ab prashansa ki mohtaaj nahi hai…iska apna ek star hai jahan tak pahunchna har kisi ke vash ki baat nahi hai…meri to bilkul bhi nahi…bahut hi samriddh bhasha hai aapki aur bhav sansaar vishaal hai..
aapka aabhar…ise aapne padhne ka avsar diya..
अतः ’क्या’, ’कैसे’, ’क्यों’ की हम व्यर्थ चिन्ता करके व्यग्र क्यों हों ? भविष्य को जिसने रचा है, वही उसकी सँभाल भी करेगा….
प्रसन्न हुई जा रही थी की यह ब्राह्मण तो हमारे जैसा ही निकला ….
मगर ब्राह्मणों की निंदा स्तुति वाणी को अनसुना कर सिद्धार्थ का हठी होकर नहीं रुकना …तपस्विनी की आगे बढ़ने का निर्देश देती मुद्रा सिद्धार्थ के अनुगामिनी होने पर विवश कर रही है ..किस सत्य की तलाश में हैं ….कहाँ मिलेगा वह ….कैसे मिलेगा ..??
एक दम से ही प्रश्न बदल गए हैं …नहीं ,बदले नहीं …..क्या क्यों और कैसे की चिंता वही है, सन्दर्भ बदल गया …..!!
नाटक के मंचन का इन्तजार तो हमें भी है ….!!
पहली बार पढ़ा
रोचकता बनी हुई है….
भाव प्रवणता एकाकार हो कुछ ऐसा ही अभिव्यक्त कराती है । नयेपन में जिज्ञासा अपने घूंघट में और भी अच्छी लगती है । अभिमंचन को लेकर हो रही उत्सुकताओं की कतार में स्वयं स्थान बना लूंगा….? सोच रहा हूं ।
आभार…!
नाट्य-मंचन तो हो ही..पर अपने पूरे साजो-सामान के साथ…और विमर्श गहराता है तो लगता कि जब अकेले मे बैठ कुछ गहरे हम उतरते हैं..तो क्या कुछ इसी तरह का नही सोचते हम सब..बस शब्द-चित्र भिन्न-भिन्न होता है..!
हिमांशु भाई, कितना गहरे उतरे हो..आप…!
बुद्ध तो जीवन प्रोब कर रहे हैं, और अपनी कहूं तो हम अभी ब्राह्मण के तर्क में ही अटके हैं।
क्या यह कोई पूर्वाग्रह तो नहीं?!
GD पूर्वाग्रह नहीं आप पूर्वग्रह में अटके हैं। साहित्य ऐसे नहीं पढ़ा जाता.
हिमांशु,
मुझे यहाँ O2 दिखती है. ऑक्सीजन- 2 माने दुगुना. लेकिन आप पढ़ नहीं रहे. हल्के में ले रहे हैं इसे. प्लीज ऐसा न करिए.
यह mahadrama होगा क्यों कि आप में दम है.
स्तिथ प्रज्ञा नहीं स्थित प्रज्ञा. छोटी छोटी और भी गलतियाँ हैं. बचो. ये प्रलय पयोधि क्या बला है?
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