“बतलाओ माँ,
बालमणि अम्मा |
मलयालम कविता की शीर्ष कवयित्री । प्रख्यात भारतीय अंग्रेजी साहित्यकार ’कमला दास’ की माँ ।
जन्म : १९ जुलाई १९०९,
मृत्यु : २९ सितम्बर २००४
’सरस्वती सम्मान’ सहित अनेक सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित । कवितायें दार्शनिक विचारों एवं मानवता के प्रति अगाध प्रेम की अभिव्यक्ति । बच्चों के प्रति प्रेम-पगी कविताओं के कारण मलयालम-कविता में अम्मा के नाम से समादृत ।
मुझे बतलाओ,
कहाँ से, आ पहुँची यह छोटी सी बच्ची ?”
अपनी अनुजाता को
परसते-सहलाते हुए
मेरा पुत्र पूछ रहा था
मुझसे;
यह पुराना सवाल,
जिसे हजारों लोगों ने
पहले भी बार-बार पूछा है ।
प्रश्न जब उन पल्लव-अधरों से फूट पड़ा
तो उस से नवीन मकरन्द की कणिकाएँ चू पड़ीं;
आह, जिज्ञासा
जब पहली बार आत्मा से फूटती है
तब कितनी आस्वाद्य बन जाती है
तेरी मधुरिमा !
कहाँ से ? कहाँ से ?
मेरा अन्तःकरण भी
रटने लगा यह आदिम मन्त्र ।
समस्त वस्तुओं में
मैं उसी की प्रतिध्वनि सुनने लगी
अपने अन्तरंग के कानों से;
हे प्रत्युत्तरहीण महाप्रश्न !
बुद्धिवादी मनुष्य की
उद्धत आत्मा में
जिसने तुझे उत्कीर्ण कर दिया है
उस दिव्य कल्पना की जय हो !
अथवा
तुम्हीं हो
वह स्वर्णिम कीर्ति-पताका
जो जता रही है सृष्टि में मानव की महत्ता ।
ध्वनित हो रहे हो
तुम
समस्त चराचरों के भीतर
शायद,
आत्मशोध की प्रेरणा देने वाले
तुम्हारे आमंत्रण को सुनकर
गायें देख रही हैं
अपनी परछाईं को
झुककर ।
फैली हुई फुनगियों में
अपनी चोंचों से
अपने आप को टटोल रही हैं, चिड़ियाँ ।
खोज रहा है अश्वत्थ
अपनी दीर्घ जटाओं को फैलाकर
मिट्टी में छिपे मूल बीज को;
और, सदियों से
अपने ही शरीर का
विश्लेषण कर रहा है
पहाड़ ।
ओ मेरी कल्पने,
व्यर्थ ही तू प्रयत्न कर रही है
ऊँचे अलौकिक तत्वों को छूने के लिये ।
कहाँ तक ऊँची उड़ सकेगी यह पतंग
मेरे मस्तिष्क की पकड़ में ?
झुक जाओ मेरे सिर,
मुन्ने के जिज्ञासा भरे प्रश्न के सामने !
गिर जाओ, हे ग्रंथ-विज्ञान
मेरे सिर पर के निरर्थक भार-से
तुम इस मिट्टी पर ।
तुम्हारे पास स्तन्य को एक कणिका भी नहीं
बच्चे की बढ़ी हुई सत्य-तृष्णा को –
बुझाने के लिये ।
इस नन्हीं सी बुद्धि को थामने-संभालने के लिये
कोई शक्तिशाली आधार भी तुम्हारे पास नहीं !
हो सकता है,
मानव की चिन्ता पृथ्वी से टकराये
और सिद्धान्त की चिनगारियाँ बिखेर दे ।
पर, अंधकार में है
उस विराट सत्य की सार-सत्ता
आज भी यथावत ।
घड़ियाँ भागी जा रही थीं
सौ-सौ चिन्ताओं को कुचलकर;
विस्मयकारी वेग के साथ उड़-उड़ कर छिप रही थीं
खारे समुद्र की बदलती हुई भावनाएँ
अव्यक्त आकार के साथ,
अन्तरिक्ष के पथ पर ।
मेरे बेटे ने प्रश्न दुहराया,
माता के मौन पर अधीर होकर ।
“मेरे लाल,
मेरी बुद्धि की आशंका अभी तक ठिठक रही है
इस विराट प्रश्न में डुबकी लगाने के लिये,
और जिस को
तल-स्पर्शी आँखों ने भी नहीं देखा है,
उस वस्तु को टटोलने के लिए ।
हम सब कहाँ से आये ? —
मैं कुछ भी नहीं जानती !
तुम्हारे इन नन्हें हाथों से ही
नापा जा सकता है
तुम्हारी माँ का तत्त्व-बोध ।”
अपने छोटे से प्रश्न का
जब कोई सीधा प्रत्युत्तर नहीं मिल सका
तो मुन्ना मुसकराता हुआ बोल उठा
” माँ भी कुछ नहीं जानती ।”
‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित अनुवाद ‘छप्पन कविताएं’ से साभार ।
सच है एक सहज बाल प्रश्न किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं होता -सुन्दर अनुवाद और प्रस्तुति –
मैंने तो कमलादास तक ही रह गया था ..आप उनकी मां तक ले गए आभार !
एक शब्द में- अद्भुत!
आभार इस प्रस्तुति का.
बहुत खूब!
nice
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
अच्छी कविता.
'अज्ञेय' ने भी अपने उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' में इस प्रश्न को बहुत ही सहजता से उठाया है. यह प्रश्न ही ऐसा है जो बालमन को कौतूहल से रोमांचित कर देता है.
एक सरल बाल मन के प्रश्न का एक अत्यंत ही सरल सा जवाब …
जिनकी मां कुछ नहीं जानती …वे बच्चे सब जानते हैं …
बहुत आभार अम्मा की इस कविता के लिए ….!!
नमन है इस कलम को। अद्भुत भावमय रचना। आभार्
बाल मन में जिज्ञासाओं का अम्बार होता है…
पर
स्वयं जवाब है मां..।
"अम्मा" को
सादर नमन… !
आभार..!
बहुत ही खुबसुरत कविता
बहुत बहुत आभार इतनी सुन्दर कविता पढवाने के लिए…आप बहुत ही प्रशंसनीय कार्य कर रहें हैं…दूसरी भाषाओं के सागर से ये कविता रुपी मोती चुनने का काम बहुत ही सराहनीय है..शुक्रिया
बहुत सुन्दर कविता..
आभार इस अनुवाद के लिए, वर्ना ऐसी रचनाएँ कहाँ ही मिलती पढने को… आप हिंदी साहित्य के इतिहास पर कब लिख रहे हैं?
–KITNA ACHHA LIKHTE HAI,VAAH—
"आभार इस अनुवाद के लिए, वर्ना ऐसी रचनाएँ कहाँ ही मिलती पढने को… आप हिंदी साहित्य के इतिहास पर कब लिख रहे हैं?"
एक अद्भुत कृति से परिचित करवाने का आभार हिमांशु जी…
कई दिनों की ब्लौगानुपस्थिति से उपजी आह अब कुछ सकून पा रही है।
आभार बन्धु !
क्या नहीं है इस कविता में !
हिमालय से निकलती गंगा की वेगवती धारा भी है और प्रशांत सागर
की प्रशांत जल-राशि भी !
यह तो बंधा रह गया ;
'' तुम्हारे इन नन्हें हाथों से ही
नापा जा सकता है
तुम्हारी माँ का तत्त्व-बोध ।"
अपने छोटे से प्रश्न का
जब कोई सीधा प्रत्युत्तर नहीं मिल सका
तो मुन्ना मुसकराता हुआ बोल उठा
" माँ भी कुछ नहीं जानती ।"
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बालमणि अम्मा का परिचय मिला , अलग से आभार !