मृत्यु !

शलभ श्रीराम सिंह

जन्म : 05-01-1938
मृत्यु : 22-04-2000
जन्म स्थान : मसोदा, जलालपुर, फैजाबाद (अम्बेडकर नगर), उ०प्र०
प्रकाशन : कल सुबह होने के पहले, अतिरिक्त पुरुष,त्रयी-२ में संकलित, राहे-हयात, निगाह-दर-निगाह, नागरिकनामा, अपराधी स्वयं, पृथ्वी का प्रेम गीत, ध्वंस का स्वर्ग, उन हाथों से परिचित हूँ मै ।
सम्पादन : अनागता, परम्परा, रूपाम्बरा, निराला, गल्प-भारती, युयुत्सा, अप्रत्याशित, नया विकल्प, कर्बला, सेवा संसार, अनुगामिनी (दैनिक), दिगंत (दैनिक)
हिन्दी नवगीत को जन-बोध का धरातल प्रदान करने वाले प्रथम कवि

जब उच्चारता हूँ तुम्हें
ध्वनित होता है सहज नारीत्व !
नारीत्व : जिसको
देखते-सुनते-परसते-भोगते
स्वयं को रीता हुआ-सा लग रहा हूँ मैं !
या कि उसके साथ
वर्षों-दिनों-घड़ियों-क्षणों में बीता हुआ-सा… !

मृत्यु
जिसके स्तनों का दूध 

मेरी धमनियों में रक्त बन कर बह रहा है 
तुम कभी वह लगीं ! 
और जिसके हाथ का धागा कलाई पर बँधा है 
तिलक माथे पर लगा है 
तुम कभी वह लगीं ! साक्षी है पर्व राखी का ! 

मृत्यु !
जिसकी एक पैनी दृष्टि से बिंध कर 
बन गया मैं अर्द्धमृत शाश्वत,
कहा था जिसने सुलगती दुपहरी में एक दिन
’प्यार की सौगन्ध खाकर कहो – भूलोगे नहीं मुझको !’
तुम कभी वह लगीं ! 
और जिसके साथ बरियाईं मुझे बाँधा गया था 
धनुष पर सीमन्त के शर-सा मुझे साधा गया था 
शास्त्र ने अर्द्धांगिनी की जिसे संज्ञा दी
तुम कभी वह लगीं ! 
मृत्यु !
जिसके घुँघुरुओं की झमक
ज़िन्दगी की तेज़तर रग पर 
छू गयी है सधे नश्तर-सी 
तुम कभी वह लगीं !
कभी तुमको मक्खियों की भीड़ से मैंने घिरी पाया ! 
किन्तु 
सबके बाद 
तुम में कहीं दर्पण की तरह कुछ है 
और उसमें कई अंशों में बँटा मैं दिख रहा हूँ ! 

ग़रज़ यह मैं सदा तुम में रहा 
तुम्हें गाया ! जिया ! तुमको सहा ! 
और फिर मैं आज 
जब कुण्ठा भरी इस भीड़ में बिलकुल अकेला हूँ
आओ ! मृत्यु, आओ !
आज फिर आँचल उढ़ा दो मुझे ! 
राखी बाँधकर टीका लगा दो फिर !
करो – खिड़की खोल – मिलने का इशारा करो !
नाचो ! मुसकराओ ! 
चितवनों का अर्थ समझाओ ! 

करो ! मेरे सामने तुम हाथ अपना करो !
मैं स्वयं को धरूँगा उस पर ! 
करो-जल्दी करो-आगे करो अपना हाथ !
और…यदि यह सब नहीं सम्भव
सुला दो ! लोरियाँ गाकर सुला दो 
मुझे जल्दी तुम !
नीं…द…में…शा…य…द…अ…के…ला…प…न…
न…र…ह…जा…ये !
मृत्यु ! जब उच्चारता हूँ तुम्हें 
ध्वनित होता है सहज नारीत्व ! 

कल सुबह होने के पहले : शलभ श्रीराम सिंह (१९६४) 

पूरे सप्ताह एकान्त का सहवास रहा ! जो खोया, वह ढूँढ़ता हुआ, कुछ सलोनापन सहेजता हुआ निकल गया यह एकान्त ! वापस आया, झट से चहक नहीं पाया । ब्लॉग-सुहृदों ने ताव दिया, भाव दिया, पर यह अनुपस्थिति लम्बी खिंच गयी ! इस दौरान ’शलभ’ को पढ़ गया, सुकून की बात ! पूरा तो नहीं, बस एक किताब ’ कल सुबह होने के पहले !’ कुछ कविताएँ विचित्र-सी अनुभूतियाँ भर गयीं, समयानुसार प्रस्तुत करुँगा ! आज ’सहज नारीत्व’ लिख रहा हूँ । जो खुद समझ में आया, नीचे टिप्पणियों में विस्तार से लिख रहा हूँ । इस कविता के साथ अपना कुछ लिखना गँवारा नहीं हुआ । सो अपनी तमीज टिप्पणी पर टाँक रहा हूँ ।


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Last Update: June 19, 2021