रामजियावन दास ’बावला’ को पहली बार सुना था एक मंच पर गाते हुए ! ठेठ भोजपुरी में रचा-पगा ठेठ व्यक्तित्व ! सहजता तो जैसे निछावर हो गई थी इस सरल व्यक्तित्व पर ! ’बावला’ भोजपुरी गीतों के शुद्ध देशज रूप के सिद्धहस्त गवैये हैं ! सोच कर नहीं लिखा कभी, मुक्त-स्रोत धारा फूट पड़ी ! गीत निकल पडे ! भोजपुरी के तुलसीदास हैं बावला ! भोजपुरी के अनगिन गुनगुनाए जाने वाले गीत इस कवि के कंठ से निकले रत्न हैं हमारे अंचल में ! ’बावला’ बावले-से अपने में मग्न अपनी रोज की दिनचर्या के उपक्रम में भोजपुरी का श्रेष्ठतम रचते रहे..प्रसिद्धि से अनजान, अप्रकाशित, अलिखित ! हमारे गाँवों, देहातों में गाये जाते रहे बावला…उनके मुँह से बहुतों ने सुना, फिर गाया, फिर-फिर गाया..पर बावला का नाम प्रकाश में नहीं आया ! गीत फैलते रहे…कविता बहती रही ! स्व० विद्यानिवास मिश्र का ध्यान औचक ही खींचा इन गीतों ने..कुछ बात बनती दिखी …वाचिक परम्परा के साहित्य में जुड़ते-से लगे ’बावला’ ! ’ विद्यानिवास जी’ की पारखी दृष्टि ने गँवई विभूति की फक्कड़, निस्पृह साधना को पहचान लिया ! उनके प्रयास से बावला के गीतों का एक संकलन ’गीतलोक’ प्रकाशित हो चुका है,जिसकी भूमिका स्वयं विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखी है !
रामजियावन दास ’बावला’
१ जून सन १९२२ को तत्कालीन बनारस स्टेट के चकिया (अब चन्दौली ज़िले की एक तहसील ) के भीखमपुर गाँव के अतिसामान्य लौहकार परिवार में जन्मे ’बावला’ छः भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं ! पिता श्री रामदेव जातीय व्यवसाय में निमग्न पूरे परिवार को ’रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पिउ….’ के सिद्धान्त पर जीना सिखाते । बावला ने संतोष का सूत्र पकड़ लिया, जो बावला के जीवन के प्रत्येक आयाम में निखरा पड़ा है । पिता-बड़े पिता रोज शाम को कंठ-कंठ में बसी रामायण पढ़ते/सुनते तुलसी बाबा वाली…बावला भी मगन होकर सुनते ! राम बस गए मन में, राम की भक्ति ठहर गयी जीवन में । परिवार में भी पढ़ने लिखने की जरूरत नहीं दिखायी गयी..बावला का मन भी न लगा…अक्षर-ज्ञान की कक्षा ही ली । कहने को तीन तक पढ़े । चौथी में फेल हुए, फिर भाग चले ..सो पढ़ना-लिखना नहीं आया ! ’पढ़ो-लिखो नहीं तो भैंस चराओ’ का सर्वमान्य सिद्धान्त सधा ’बावला’ पर..’बावला’ ने कहावत जीने की सोची…भैंस चराने लगे । यह परिवार के काम में उनके हिस्से का काम हो गया । उस समय से अब तक ’बावला’ राम भजते, लोक-व्यवहार निभाते, घर-दुआर की पहरेदारी करते..अपने हिस्से का काम मुस्तैदी से करते मिलेंगे ! आज के पाँच-सात पहले तक यही उनका क्रम-नियम था ! अब उम्र ने कुछ निराश कर दिया होगा उन्हें , यह अलग बात है ! इस भैंस चराई के उपक्रम में ’मानस’ के दोहे-चौपाईयाँ मन में उतारते-गुनगुनाते..फिर उन्हें अपने रस में घोलते ! लोक के चितेरे तुलसी की अभ्यर्थना और क्या हो सकती थी, सिवाय इसके कि उनकी एक-एक चौपाई, एक-एक दोहा पग रहा था भोजपुरी के रस में ! पुनः रची जा रही थी रामायण…उसी प्राणवत्ता के साथ !
बालपन से रामजियावन भैंस चराते अपने गाँव के निकट की पहाड़ियों पर दूर तक निकल जाते ! मन में रामायण के विविध प्रसंग घूमते रहते । मानस के अनेकों चरित्र का मानस साक्षात्कार बावला को विभोर कर देता । एक दिन यूँ ही चन्दौली की रम्य पहाड़ियों (विंध्य श्रृंखला) में विचरते राजदरी जलप्रपात के समीप ’बावला’ ने पास के ही गाँव ’धुसुरियाँ’ के कोलभीलों को देखा । ’मानस’ की वीथिका में टहलता मन औचक ही इन वनवासियों के साक्षात्कार से चिहुँक पड़ा । इन वनवासियों में वनवासी राम दिखे…भावविगलित बावला हतवाक ! युग-काल से परे राम के समय से जोड़ लिया खुद को ’बावला’ ने । वनवासी राम से पूछते ’बावला’ के कंठ ने अनायास ही गा दिया –
“कहवां से आवेला कवने ठहयां जइबा, बबुआ बोलता ना के हो देहलेस तोहके बनवास…”
प्रारम्भ ले चुकी थी बावला का सर्जना । “राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है..” पुनः चरितार्थ हो चुका था । तुलसी बाबा ने अपनी संजीवनी पिला दी थी इस नए भोजपुरी-तुलसी को । अब ’रामजियावन’ सच्चे अर्थों में ’बावला’ बन चुके थे । गीत बनते रहे..जाने अनजाने कई कवित्त, सवैये रचे जाते रहे…बात अलग है कि भैंस कहीं दूर खो जाती..बावला बाद में श्रम से उसे ढूँढ़ते ।
’बावला’ ने जो अनुभूत किया..गाया, जो महसूस किया…गाया, जो देखा..उसे गाया, जो भोगा…उसे गाया । ’बावला’ और गीत एक दूसरे के पर्याय हैं । गँवई संवेदना के भीतर तक घुसे, ईश्वर भक्ति को विस्तरित किया ग्राम-समाज-देश की भक्ति की । यथार्थ को जिया तो उसे भी पूरी सामर्थ्य से गाया । ’बावला’ अभी भी गा रहे हैं…८८ वर्ष की आयु में भी उनका कंठ-स्वर मद्धिम नहीं हुआ है..’बावला’ अब भी हम जैसे युवाओं के लिए एक पाठ हैं..जिसे निरन्तर पढ़ा जाना चाहिए, जिसकी अर्थमय गहराई में उतरना चाहिए !
बावला के स्वर में उनका परिचय सुनिए और एक गीत…रिकॉर्डिंग मिल गयी मुझे एक मित्र के पास । गुणवत्ता काफी सुधारने के बाद भी आप के सुनने लायक हो पायी हो..तो श्रम सार्थक होगा मेरा । कई जगहों पर खंडित भी थी रिकॉर्डिंग, कुछ हिस्सा निकाल पाया हूँ उसमें से । एकाध वीडियो भी मिले हैं ! यदि वह देने लायक हो सके तो उन्हें पुनः प्रस्तुत करूँगा ।
A blogger since 2008. A teacher since 2010, A father since 2010. Reading, Writing poetry, Listening Music completes me. Internet makes me ready. Trying to learn graphics, animation and video making to serve my needs.
यह मेरा परमसौभाग्य है कि साहित्यिक संघ की काव्य गोष्ठियों में रामजियावन दास बावला को देखने-सुनने का अवसर मिला है। कुछ छंद तो ऐसे हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ने-सुनने का मन करता है। जैसे सूखा से बेहाल मेहनतकश किसान की पीड़ा की एक बानगी देखिए-
तोरि के पाताल के आकाश में उछाल देब ढाल देब पानी-पानी पूरा एक दान में। बाहु बल बिधि क बिधान हेर फेर देब का करी अकाल जान डाल देब जान में। धानी रंग धरती क रंग नाहीं उतरी त उतरी कब उतरी सोनहुला सिवान में। रूठ जाय अदरा औ बदरा भी रूठ जाय भदरा न लगइ देब खेत खलिहान में ।।
गांव-गिरांव की चर्चा करते हुए एक छंद देखें-
पग पग धरती सिवनवा क नापइ देहियाँ क सुधि नाहीं फटहा झिंगोला । तपनी थिथोर होय सँझवा के दर दर बुढ़ऊ क कहनी सोहाय भर टोला। उँखिया क रस कोल्हुवड़वा बोलावइ गुड़वा सोन्हाय त उमगि जाय चोला। गँवई क गाँव जहाँ दिन भर चाँव माँव धूरिया लपेट के फिरैलैं बम भोला।।
–मैं तो 'बावला' में कबीर को पाता हूँ। –रामजियावन दास बावला की चर्चा से आज आपका ब्लॉग और भी सुंदर दिखने लगा। –आभार।
तो ये हैं "बबुआ बोलता ना" के रचयिता। मेरे यहाँ भी गाया जाता है। ऐसे कई गीत हैं इस टेक पर। चकिया से घोरठ की दूरी आँक रहा हूँ और सोच रहा हूँ ये लोक सुर कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं – बिना किसी प्रचार तंत्र के ! जैसे पुरुवा पर सवार हो भीगापन … बहुत बहुत आभार बावला जी से परिचय कराने के लिए ।
भो ब्लॉग-वल्लभ ! कई बार आता हूँ और कई बार रस तृप्त होता हूँ .. फिर एक अतृप्ति रह जाती है और वही पूर्व-तृप्ति के चरम और परम का उद्घोष करती है .. क्या पाता हूँ .. कितना कुछ और और और और ,,,, जैसे गोपालनायक के बासुरी की सरगम कान में भर जाय .. जैसे एक बादल का टुकड़ा आये , बरसे , भिगोये और क्षितिज में खो जाय .. [ हूक छोड़ जाय … ह..ऊ..क.. ] जैसे छप्पर की बड़ेर का धैर्य जिया जाय .. जैसे गैया , पालकों की आँखों की चिर-प्रतीक्षित मांग को पूर्ण करते बछिया बिया जाय .. जैसे बसवार से आ जाय पाती और सद्यः प्रसूता गौ खा जाय .. जैसे सांझ में तालाब के दूसरे पार की टेर ललाई को सुर-अंधियारे का अंजन लगा जाय .. ……………………….. और हाँ 'बेचैन आत्मा' की तरह मुझे भी बावला जी के नजदीक कबीर लगते है , तुलसी की शास्त्रीयता का आग्रह ठीक नहीं यहाँ पर ! मैं कहूंगा इन्हें भोजपुरी के 'अभिनव कबीर' ! दोनों की मादरे-जुबान भोजपुरी ! जैसे , जहां से कबीर छोड़ते है वहाँ से बावला जी अभिनव पारी शुरू करते हैं .. दोनों में लोकाश्रयी फक्कडपन ! .. कबीर के निर्गुण राम को जैसे सगुन-रस में भिगोते है , बावला ! …………………………… मन्त्र-मुग्ध सा हूँ ! अक्सर इस अवस्था में मैं संवाद पर उतर आता हूँ .. पर जैसे यह आभासी दुनिया अब मुझे हिदायत देने लगी हो – ' ब्लॉग से संवाद करो , ब्लोगर से नहीं ! ' …………………………… वीडिओ को लेकर आशान्वित हूँ , कि आप जल्द ही एक सुन्दर पोस्ट में उसे भी लायेंगे ! …………….आभार !!!
@ देवेन्द्र जी, बावला जी को जिन्होंने सुना..उनके सौभाग्य के क्या कहने ! बावला जी के कुछ अन्य गीतों की बानगी देकर उपकार किया है आपने ! प्रविष्टि को पूर्णता दी है । आभार ।
@ अमरेन्द्र, सारगर्भित टिप्पणी का आभार ! बावला के साहित्य को ढंग से देखने पर ऐसा लगता है कि यदि किसी महनीय कवि-व्यक्तित्व का प्रभाव उन्होंने ग्रहण किया है तो तुलसी बाबा का ही ! बाबा की कई उदभानवाएं बावला की प्रेरणा बन कर उनकी ठेठ कविताई में शास्त्रीय गौरव भर गयी हैं ! बावला मूलतः लोक-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र के बीच सेतु का काम करने वाले कवि हैं..अन्तःप्रेरणा से संचालित होकर..अनायास रचने वाले कवि ! आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने ऐसी ही कई विशेषताएं लक्षय कर उन्हें ’भोजपुरी का तुलसीदास’ कहा !
अद्भुद!!!! अवाक् हूँ … जैसे अभी अभी बरखा की पहली फुहार पड़ी है और सुरमई बदरी से शाम का सूरज झांक उठा हो … माटी की महक आँखें बंद कर नथुनों भर अनुभव करता हूँ … लिखे गए काव्य और उतरे हुए काव्य का अंतर स्पष्ट है … आगे क्या कहूँ … बस दो पल जी लूँ जरा… मिलते हैं दोबारा यहीं पर
भोजपुरी के तुलसीदास को स्व. आचार्य विद्यानिवास जी ने पहचाना और हम सबको उनके वैशिष्ट्य से आपने परिचित कराया. हार्दिक आभार. बहुत बुरा लग रहा है कि भोजपुरिया होते हुए उसके साहित्य व मूर्धन्य लोगों से काफी अनजान हूं. बहुत-बहुत धन्यवाद "बावला" जी के बारे में बताने के लिए….
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
बावला जी की आवाज में माटी के बोल रस घोल गये.
विडियो भी देखने की बेसब्री है
वाकई आपके प्रयास से मैँ इस बात को जान पाया. भोजपुरी अंचल का होने के कारण मुझे यह बावला जी को पहले जान लेना चहिये था. आपका आभार!
बावला जी का अपने शब्दों में परिचय मस्त कर गया. बहुत शुक्रिया इस भोजपुरी कवि से मिलवाने का।
इस बावलेपन से एक बार में गुजरना संभव नहीं है ..
फिर-फिर अवाई होगी ..
बावलेपन के साथ आपका मुखरपन अच्छा लगा !
यह मेरा परमसौभाग्य है कि साहित्यिक संघ की काव्य गोष्ठियों में रामजियावन दास बावला को देखने-सुनने का अवसर मिला है। कुछ छंद तो ऐसे हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ने-सुनने का मन करता है। जैसे सूखा से बेहाल मेहनतकश किसान की पीड़ा की एक बानगी देखिए-
तोरि के पाताल के आकाश में उछाल देब ढाल देब पानी-पानी पूरा एक दान में।
बाहु बल बिधि क बिधान हेर फेर देब का करी अकाल जान डाल देब जान में।
धानी रंग धरती क रंग नाहीं उतरी त उतरी कब उतरी सोनहुला सिवान में।
रूठ जाय अदरा औ बदरा भी रूठ जाय भदरा न लगइ देब खेत खलिहान में ।।
गांव-गिरांव की चर्चा करते हुए एक छंद देखें-
पग पग धरती सिवनवा क नापइ देहियाँ क सुधि नाहीं फटहा झिंगोला ।
तपनी थिथोर होय सँझवा के दर दर बुढ़ऊ क कहनी सोहाय भर टोला।
उँखिया क रस कोल्हुवड़वा बोलावइ गुड़वा सोन्हाय त उमगि जाय चोला।
गँवई क गाँव जहाँ दिन भर चाँव माँव धूरिया लपेट के फिरैलैं बम भोला।।
–मैं तो 'बावला' में कबीर को पाता हूँ।
–रामजियावन दास बावला की चर्चा से आज आपका ब्लॉग और भी सुंदर दिखने लगा।
–आभार।
बावला जी से इ मुलकात बा बस मधुर सौगात
अब ई बात हम बाबा कईसे बताई
मन मा उमंग जागे, हीय बड़ी जोर भागे
जस-जस उन्खा कवित सुनत जाई
बस एक शब्द… वाह !
अद्भुत प्रतिभा -राम जियावन दास बावला क्या कहने ?
बहुत आभार हिमांशु -यह तो एक धरोहर है …बाद की आडिओ क्वालिटी ठीक नहीं है लेकिन !
बावला के स्वर में उनका गीत सुनकर आनन्द आ गया..परिचय भी बहुत बढ़िया दिया. विड़ियो दिखाईये भाई.
nice post !
उत्क्रिस्ट रचनाकार से परिचय कराया,आपको धन्यवाद हिमांशु जी.
इस पोस्ट के लिये आपका जितना आभार व्यक्त करें कम है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
हिमांशु जी,
बावला जी से ब्लाग जगत का परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत आभार
बहुत से लोकगीतकार अभी भी ऐसे हैं जिनसे जग परिचित नही है।
तो ये हैं "बबुआ बोलता ना" के रचयिता। मेरे यहाँ भी गाया जाता है। ऐसे कई गीत हैं इस टेक पर। चकिया से घोरठ की दूरी आँक रहा हूँ और सोच रहा हूँ ये लोक सुर कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं – बिना किसी प्रचार तंत्र के ! जैसे पुरुवा पर सवार हो भीगापन …
बहुत बहुत आभार बावला जी से परिचय कराने के लिए ।
बावलाजी और उनकी सहज काव्य और गायन प्रतिभा के परिचय के लिए बहुत आभार ..
वाह! वाह! वाह!!!
यह तो नायाब पोस्ट है हिमांशु।
रामजियावन जी को भूलूंगा नहीं।
भो ब्लॉग-वल्लभ !
कई बार आता हूँ और कई बार रस तृप्त होता हूँ .. फिर एक अतृप्ति
रह जाती है और वही पूर्व-तृप्ति के चरम और परम का उद्घोष करती है ..
क्या पाता हूँ ..
कितना कुछ और और और और ,,,,
जैसे गोपालनायक के बासुरी की सरगम कान में भर जाय ..
जैसे एक बादल का टुकड़ा आये , बरसे , भिगोये और क्षितिज में खो जाय ..
[ हूक छोड़ जाय … ह..ऊ..क.. ]
जैसे छप्पर की बड़ेर का धैर्य जिया जाय ..
जैसे गैया , पालकों की आँखों की चिर-प्रतीक्षित मांग को पूर्ण करते बछिया बिया जाय ..
जैसे बसवार से आ जाय पाती और सद्यः प्रसूता गौ खा जाय ..
जैसे सांझ में तालाब के दूसरे पार की टेर ललाई को सुर-अंधियारे का अंजन लगा जाय ..
………………………..
और हाँ 'बेचैन आत्मा' की तरह मुझे भी बावला जी के नजदीक कबीर लगते है , तुलसी
की शास्त्रीयता का आग्रह ठीक नहीं यहाँ पर !
मैं कहूंगा इन्हें भोजपुरी के 'अभिनव कबीर' ! दोनों की मादरे-जुबान भोजपुरी ! जैसे ,
जहां से कबीर छोड़ते है वहाँ से बावला जी अभिनव पारी शुरू करते हैं .. दोनों में लोकाश्रयी
फक्कडपन ! .. कबीर के निर्गुण राम को जैसे सगुन-रस में भिगोते है , बावला !
……………………………
मन्त्र-मुग्ध सा हूँ !
अक्सर इस अवस्था में मैं संवाद पर उतर आता हूँ .. पर जैसे यह आभासी दुनिया अब
मुझे हिदायत देने लगी हो – ' ब्लॉग से संवाद करो , ब्लोगर से नहीं ! '
……………………………
वीडिओ को लेकर आशान्वित हूँ , कि आप जल्द ही एक सुन्दर पोस्ट में उसे भी लायेंगे !
…………….आभार !!!
@ देवेन्द्र जी,
बावला जी को जिन्होंने सुना..उनके सौभाग्य के क्या कहने !
बावला जी के कुछ अन्य गीतों की बानगी देकर उपकार किया है आपने ! प्रविष्टि को पूर्णता दी है । आभार ।
@ अमरेन्द्र,
सारगर्भित टिप्पणी का आभार ! बावला के साहित्य को ढंग से देखने पर ऐसा लगता है कि यदि किसी महनीय कवि-व्यक्तित्व का प्रभाव उन्होंने ग्रहण किया है तो तुलसी बाबा का ही !
बाबा की कई उदभानवाएं बावला की प्रेरणा बन कर उनकी ठेठ कविताई में शास्त्रीय गौरव भर गयी हैं ! बावला मूलतः लोक-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र के बीच सेतु का काम करने वाले कवि हैं..अन्तःप्रेरणा से संचालित होकर..अनायास रचने वाले कवि !
आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने ऐसी ही कई विशेषताएं लक्षय कर उन्हें ’भोजपुरी का तुलसीदास’ कहा !
अद्भुद!!!! अवाक् हूँ … जैसे अभी अभी बरखा की पहली फुहार पड़ी है और सुरमई बदरी से शाम का सूरज झांक उठा हो … माटी की महक आँखें बंद कर नथुनों भर अनुभव करता हूँ … लिखे गए काव्य और उतरे हुए काव्य का अंतर स्पष्ट है … आगे क्या कहूँ … बस दो पल जी लूँ जरा… मिलते हैं दोबारा यहीं पर
भोजपुरी के तुलसीदास को स्व. आचार्य विद्यानिवास जी ने पहचाना और हम सबको उनके वैशिष्ट्य से आपने परिचित कराया. हार्दिक आभार. बहुत बुरा लग रहा है कि भोजपुरिया होते हुए उसके साहित्य व मूर्धन्य लोगों से काफी अनजान हूं.
बहुत-बहुत धन्यवाद "बावला" जी के बारे में बताने के लिए….
वाह हिमांशु भाई , बीच बीच जाने कितनी बार आपकी इस प्रविष्टि को पढ़ता/सुनता रहा हूँ ! इसका विस्तार कीजिये !
बावला भोजपुरी दुनिया का एक बहुत बड़ा नाम है रामचरितमानस का भोजपुरी में वर्णन किया है यह हमारे आदर्श भी हैं
धन्यवाद प्रिय!