राम जियावन दास ’बावला’ को पहली बार सुना था एक मंच पर गाते हुए ! ठेठ भोजपुरी में रचा-पगा ठेठ व्यक्तित्व ! सहजता तो जैसे निछावर हो गई थी इस सर...
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रामजियावन दास ’बावला’ |
१ जून सन १९२२ को तत्कालीन बनारस स्टेट के चकिया (अब चन्दौली ज़िले की एक तहसील ) के भीखमपुर गाँव के अतिसामान्य लौहकार परिवार में जन्मे ’बावला’ छः भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं ! पिता श्री रामदेव जातीय व्यवसाय में निमग्न पूरे परिवार को ’रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पिउ....’ के सिद्धान्त पर जीना सिखाते । बावला ने संतोष का सूत्र पकड़ लिया, जो बावला के जीवन के प्रत्येक आयाम में निखरा पड़ा है । पिता-बड़े पिता रोज शाम को कंठ-कंठ में बसी रामायण पढ़ते/सुनते तुलसी बाबा वाली...बावला भी मगन होकर सुनते ! राम बस गए मन में, राम की भक्ति ठहर गयी जीवन में । परिवार में भी पढ़ने लिखने की जरूरत नहीं दिखायी गयी..बावला का मन भी न लगा...अक्षर-ज्ञान की कक्षा ही ली । कहने को तीन तक पढ़े । चौथी में फेल हुए, फिर भाग चले ..सो पढ़ना-लिखना नहीं आया ! ’पढ़ो-लिखो नहीं तो भैंस चराओ’ का सर्वमान्य सिद्धान्त सधा ’बावला’ पर..’बावला’ ने कहावत जीने की सोची...भैंस चराने लगे । यह परिवार के काम में उनके हिस्से का काम हो गया । उस समय से अब तक ’बावला’ राम भजते, लोक-व्यवहार निभाते, घर-दुआर की पहरेदारी करते..अपने हिस्से का काम मुस्तैदी से करते मिलेंगे ! आज के पाँच-सात पहले तक यही उनका क्रम-नियम था ! अब उम्र ने कुछ निराश कर दिया होगा उन्हें , यह अलग बात है ! इस भैंस चराई के उपक्रम में ’मानस’ के दोहे-चौपाईयाँ मन में उतारते-गुनगुनाते..फिर उन्हें अपने रस में घोलते ! लोक के चितेरे तुलसी की अभ्यर्थना और क्या हो सकती थी, सिवाय इसके कि उनकी एक-एक चौपाई, एक-एक दोहा पग रहा था भोजपुरी के रस में ! पुनः रची जा रही थी रामायण...उसी प्राणवत्ता के साथ !
बालपन से रामजियावन भैंस चराते अपने गाँव के निकट की पहाड़ियों पर दूर तक निकल जाते ! मन में रामायण के विविध प्रसंग घूमते रहते । मानस के अनेकों चरित्र का मानस साक्षात्कार बावला को विभोर कर देता । एक दिन यूँ ही चन्दौली की रम्य पहाड़ियों (विंध्य श्रृंखला) में विचरते राजदरी जलप्रपात के समीप ’बावला’ ने पास के ही गाँव ’धुसुरियाँ’ के कोलभीलों को देखा । ’मानस’ की वीथिका में टहलता मन औचक ही इन वनवासियों के साक्षात्कार से चिहुँक पड़ा । इन वनवासियों में वनवासी राम दिखे...भावविगलित बावला हतवाक ! युग-काल से परे राम के समय से जोड़ लिया खुद को ’बावला’ ने । वनवासी राम से पूछते ’बावला’ के कंठ ने अनायास ही गा दिया -
"कहवां से आवेला कवने ठहयां जइबा,
बबुआ बोलता ना
के हो देहलेस तोहके बनवास..."
प्रारम्भ ले चुकी थी बावला का सर्जना । "राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है.." पुनः चरितार्थ हो चुका था । तुलसी बाबा ने अपनी संजीवनी पिला दी थी इस नए भोजपुरी-तुलसी को । अब ’रामजियावन’ सच्चे अर्थों में ’बावला’ बन चुके थे । गीत बनते रहे..जाने अनजाने कई कवित्त, सवैये रचे जाते रहे...बात अलग है कि भैंस कहीं दूर खो जाती..बावला बाद में श्रम से उसे ढूँढ़ते ।
’बावला’ ने जो अनुभूत किया..गाया, जो महसूस किया...गाया, जो देखा..उसे गाया, जो भोगा...उसे गाया । ’बावला’ और गीत एक दूसरे के पर्याय हैं । गँवई संवेदना के भीतर तक घुसे, ईश्वर भक्ति को विस्तरित किया ग्राम-समाज-देश की भक्ति की । यथार्थ को जिया तो उसे भी पूरी सामर्थ्य से गाया । ’बावला’ अभी भी गा रहे हैं...८८ वर्ष की आयु में भी उनका कंठ-स्वर मद्धिम नहीं हुआ है..’बावला’ अब भी हम जैसे युवाओं के लिए एक पाठ हैं..जिसे निरन्तर पढ़ा जाना चाहिए, जिसकी अर्थमय गहराई में उतरना चाहिए !
बावला के स्वर में उनका परिचय सुनिए और एक गीत...रिकॉर्डिंग मिल गयी मुझे एक मित्र के पास । गुणवत्ता काफी सुधारने के बाद भी आप के सुनने लायक हो पायी हो..तो श्रम सार्थक होगा मेरा । कई जगहों पर खंडित भी थी रिकॉर्डिंग, कुछ हिस्सा निकाल पाया हूँ उसमें से । एकाध वीडियो भी मिले हैं ! यदि वह देने लायक हो सके तो उन्हें पुनः प्रस्तुत करूँगा ।
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