‘मोहरे वही, बिसात भी वही और खिलाड़ी भी…/ यह कैसे हुआ मीत /….’
बहुत पहले सुना था इस गीत को । कोशिश की, गीतकार का नाम पता चल जाय पर जान न सका उस वक्त । कुछ लोगों ने कहा, मुझे भी लगा कि शायद यह गीत प्रसिद्ध गीतकार श्री बुद्धिनाथ मिश्र का है, पर ठीक-ठीक अब भी नहीं पता गीतकार का नाम । गीत भी पूरा नहीं है मेरे पास । गीत, चूंकि बस गया था मन में और इसकी लय-धुन भी, सो खुद ही उसी लय, उसी धुन का अनुकरण कर रच डाला है यहां प्रस्तुत गीत ।
जानता हूं कि अधिसंख्य गीत-प्रेमियों नॆ सुना-पढा-सराहा होगा यह गीत, सो आपसे अपेक्षा है कि आप उपरोक्त गीत को पूर्णतः उसके गीतकार के नाम के साथ टिप्पणियों में लिखेंगे । उपकार होगा बहुत ।
यह कैसे हुआ मीत
दिनकर की वही किरण कुमुद को बिसार गयी कमल को दुलार गयी !
शरद पूर्णिमा की वह राका अभिरामा थी
एक चन्द्र से चुम्बित दोनों खग वामा थी
यह कैसे हुआ मीत
एक ही निशा में क्यों विजयिनी उलूकी थी, चकई क्यों हार गयी ?
अवगुंठन में सिमटी मानिनी प्रिया निकली
छुम छन् न् न् पायल ध्वनि ले बही हवा पगली
यह कैसे हुआ मीत
वही कामिनी कैसे रसना से टाल गयी, दृग से स्वीकार गयी ?
दर्पणाभ आनन की छवि में डूबा दर्पण
प्रियतम ने चाहा जब करना सब कुछ अर्पण
यह कैसे हुआ मीत
एक साथ ही कैसे मेघदूत-मधुशाला बोलकर सिधार गयी !
… बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना प्रस्तुति……
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
वाह बहुत सुंदर कविता है भई.
उस गीतकार का नाम तो हमें नहीं पता. पर आपकी रचना पसंद आई. सब कुछ वही पर यह कैसे हुआ मीत !
आनन्दमयी प्रस्तुति।
बहुत सुन्दर गीत बन पड़ा है ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद।
कृ्प्या मेरा ये ब्लाग भी देखें
http://veeranchalgatha.blogspot.com/
धन्यवाद।
प्रिय बंधुवर हिमांशु जी
नमस्कार !
बहुत सुंदर गीत लिखा है आपने ।
… और भाषा का स्वरूप मंत्रमुग्ध करने वाला है ।
आम बोलचाल की शब्दावली से कुछ क्लिष्ट अवश्य है , लेकिन काव्य की यह भाषा भी सुरक्षित रहनी आवश्यक है ।
वही कामिनी कैसे रसना से टाल गयी,
दृग से स्वीकार गयी ?
बहुत मनोहारी भाव हैं ।
लेकिन बंधु , लय कुछ जगह भंग होती प्रतीत नहीं हो रही ?
लेकिन पूरे गीत का सौंदर्य देखते ही बनता है ।
मैंने छक कर इसका रसास्वादन किया है , इसके लिए आपके प्रति आभार ! धन्यवाद !
शुभकामनाओं सहित
– राजेन्द्र स्वर्णकार
भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से कविता अत्युत्तम है…लगता है कविता अपने मूल स्वरूप में लौट आई है…बधाई।
किसी कवि का सम्मान करने का इससे अच्छा रूप और क्या हो सकता है कि उसके गीत को उसी रूप में आगे बढ़ा दिया जाए… अप्रतिम !
मुझे सबसे अच्छी ये पंक्तियाँ लगीं
"शरद पूर्णिमा की वह राका अभिरामा थी
एक चन्द्र से चुम्बित दोनों खग वामा थी
यह कैसे हुआ मीत
एक ही निशा में क्यों विजयिनी उलूकी थी, चकई क्यों हार गयी ?
'' प्रश्न बड़े अच्छे हैं
एक दर्शक की निगाह से ही अगर देखें सब
उत्तर है सरलीकृत
खोट मीत में ही थी !
दगा प्रीत में ही थी !
पर
भोक्ता का सच भला कौन जान सकता है ?
कौन बात थी जिसमें
कोई चुप लगा गया ! '' [ ऐसे ही आपकी कविता पढ़ते समय आयी दिमाग(?) की खलल लिख दी मैंने ]
ऐसा कोई गीत नही सुना था हमने..सो नया-नया और भला-भला सा लगा..स्वप्न और यथार्थ का संगम..और यह पंक्ति विशेषकर
एक साथ ही कैसे मेघदूत-मधुशाला बोलकर सिधार गयी !
अत्यंत सुन्दर गीत . साधुवाद .
अत्यंत सुन्दर गीत . साधुवाद .
एक ही निशा में क्यूँ उलुकिनी विजयी थी , चकई हार गयी …
यह पंक्ति रट गयी है …!
बहुत सुन्दर गीत …!