प्रस्तुत हैं शैलबला शतक: स्तुति काव्य के चार और कवित्त! करुणामयी जगत जननी के चरणों में प्रणत निवेदन हैं यह कवित्त! शतक में शुरुआत के आठ कवित्त काली के रौद्र रूप का साक्षात दृश्य उपस्थित करते हैं।
पिछली दो प्रविष्टियाँ सम्मुख हो चुकी हैं आपके। शैलबाला-शतक के प्रारंभिक चौबीस छंद कवित्त शैली में हैं। शेष सवैया छंद में रचे गए हैं।
क्रमशः प्रस्तुतियाँ शैलनन्दिनी के अनगिन स्वरूप उद्घाटित करेंगी। प्रविष्टि में बाबूजी की ही आवाज में इन कवित्तों का पाठ भी प्रस्तुत है। पिछली प्रविष्टियाँ : एक, दो। पिछले ऑडियो: एक, दो।
लोटै दा अपने दुआरी महतारी हमैं
तोहरै बल पर पंकिल कै बनल लाम काफ हौ
खोज कै खियावल पियावल दुलरावल करा
बड़ा दुरदुरावल हई लेई पूँजी साफ हौ
विपदा कै मारल झोंकारल विषयानल कै
बोली बकार बंद सहत हूँफ हाँफ हौ
तोहरै हौ भरोसा दिव्य भोजन परोसा अम्ब
माई किहाँ बेटवा कै हजार खून माफ हौ ॥९॥
रोज ई दरिद्दरकाऊगुद्दर उड़ावल करी
लेबू मोर माई हिसाब पाई-पाई कब
टूटल मोर डोंगी के जमोंगी बड़ा रोगी हई
देबू दुख बूझि अपने हाथ से दवाई कब
अइसे दुखधनिहा बीच जिनगी ओराई का
सनेहमई माई बदे आई रोवाई कब
बार-बार माथे पर मतारी कै हथोरी फिरी
हाय माय पंकिल कै ऊ दिन आई कब ॥१०॥
अईसन मोर घटलीं कमाई बेहयाई चढ़ी
सब बिधि छाई हीनताई बल तेज में
काजर के घर में दाग लागल हजार जब
लेबू तू उबार रहि पाइब परहेज में
पंकिल अधमाई में समाई अरुझाई बुद्धि
कब सुख पायी माई बाँहिन की सेज में
लोटा सोंटा ले के तोहार बेटा भीख माँगै चली
कईसे हूक उठी ना मतारी के करेज में ॥११॥
बामै का बिधाता बाता बाता हिलि जात काहें
तोहरे अछत माता बरदाता सुखदायिनी
कोमल पद पंकज धूरि धूसर निज जूती अपने
पूत के कपारे रख देतू सुरवंदिनी
तोंहईं दुरदुरइबू महँटियइबू जगत जननी तब
कईसे कहल जईबू सर्वोत्तम कृपालुनी
कइसे देखि जाई दुख माई बड़ा मोही हऊ
पंकिल के अँचरा तरे राखा शैलनन्दिनी ॥१२॥
काठिन्य निवारण-
९) दुआरी- द्वार पर; लाम काफ- बाह्य प्रदर्शन; दुरदुरावल- उपेक्षित किया हुआ; झोंकारल- जलाया हुआ; बोली बकार- आवाज; हूँफ हाँफ- डांट फटकार।
१०)दरिद्दर-दरिद्र; काऊगुद्दर उड़ावल- किसी के आने के शगुन के रूप में कौवा उडाना; जमोंगी-बचाना,सुरक्षित रखना; दुखधनिहा-घोर कष्ट; ओराई-समाप्त होना; मतारी- मां।
११)अधमाई-नीचता; अरुझाई-उलझी हुई; लोटा सोंटा ले के-खाली हाथ हो जाना (भीख मांगने की मुद्रा); करेज- कलेजा।
१२)बामै- विपरीत; बाता बाता- हड्डी-हड्डी; तोहरे अछत-तुम्हारे होते हुए; कपारे-सिरपर; महँटियइबू-ध्यान न देना।
बहुत सुंदर रचना, आप सब को नवरात्रो की शुभकामनायें,
ऑडियो सुनना कुछ घंटो बाद हो पायेगा. और मुझे लगता है वो ज्यादा प्रभावी होगा.
भोजपुरी(काशिका)में रचित अद्भुत छंदों को पढ़कर ही मन प्रफुल्लित हो गया। कठिन शब्दों के अर्थ पढ़कर भोजपुरी से अपरिचित हिंदी के विद्वान दांतो तले ऊँगली दबा लें और इसकी मिठास, सटीक प्रयोग देखकर मंत्रमुग्ध हो जांय तो अचम्भा न होगा।
देवी माँ की स्तुति में नवरात्रों में प्रस्तुत यह सामायिक रचना बहुत ही प्रभावी है .नवरात्रि पर्व की शुभकामनायें.
ऑडियो प्लेयर बहुत छोटा कर दिया आपने ..प्ले का बटन नहीं दिखाई दे रहा .'एरो 'पर क्लिक किया लेकिन चल नहीं रहा.कृपया चेक करीए.
@सामायिक=सामयिक
गजब!
लगा जैसे दुर्गा क्षमा प्रार्थना को संस्कृत से निकाल भोजपूरी में कहा जा रहा हो। और यत्र तत्र आधुनिक मानव की पीर भी झलकती है। शब्द सम्पदा तो अनुपम है।
आभार।
@ अल्पना जी,
ऑडियो प्लेयर रचना के अंत में लगा दिया है । साइज भी बढा दी है । आभार ।
शुक्रिया हिमांशु जी,
भक्ति भाव पूर्ण रचना..बाबूजी के स्वर में सुनना बेहद प्रभावी लगा.