
प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख का हिन्दी रूपान्तर । ‘लोसा’ साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं । साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख । इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में उपलब्ध होगा । पहली व दूसरी कड़ी के बाद प्रस्तुत है तीसरी कड़ी ।

जनसामान्य के उद्भव और उसके लक्ष्य के प्रति चेतना का सृजन करके तथा मानव जाति को परस्पर संवाद के लिए बाध्य करके साहित्य उसमें जो भाईचारा स्थापित करता है, वह सारे भौतिक बंधनों को पार कर जाता है । साहित्य हमें विगत में पहुँचा देता है और उन लोगों से हमारा सम्बन्ध स्थापित कर देता है, जिन्होंने अतीत काल में योजनायें रचीं, आनन्द प्राप्त किया और उन रचनाओं की स्वप्न-सृष्टि में डूबे रहे जो हम तक उतर कर आयी हैं; और जो आज भी हमें आनन्द लेने और स्वप्न संरचना की पृष्ठभूमि प्रदान करती हैं । यह संयुक्त मानव अनुभूति में अपनी उपस्थिति की भावना जो समय और काल की सीमा के पार होती है, संस्कृति की सर्वोत्तम उपलब्धि होती है, और पीढ़ी दर पीढ़ी इसके पुनर्नवीनीकरण में जितना योगदान साहित्य देता है उतना और कुछ भी नहीं ।
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मारिओ वर्गास लोसा |
पेरू के प्रतिष्ठित साहित्यकार। कुशल पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी। वर्ष २०१० के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता।
जो साहित्यिक रचनायें हैं वे रचनाकार की चेतना की गहन आत्मीयता में एक आकृति-विहीन प्रेतात्मा की तरह उत्पन्न होती हैं । उनमें अचेतन की संयुक्त शक्ति होती है और होती है लेखक की संवेदना जो उसके चतुर्दिक व्याप्त विश्व के प्रति होती है, और होते हैं लेखक के संवेग – और ये ही चीजे हैं जिनको कवि या कथाकार शब्दों के साथ जूझता हुआ क्रमशः रूप, आकार, गति, लय, छंद और जीवन प्रदान करता है । यह निश्चित ही एक बनावटी जीवन है, निश्चित ही एक काल्पनिक जीवन है, फिर भी नर-नारी यह बनावटी जीवन खोजते हैं – कुछ तो तीव्र गति से, कुछ बिखरे हुए भाव से । ऐसा इसलिए कि वास्तविक जीवन उनके लिए छोटा पड़ जाता है, और उनको वह देने में समर्थ नहीं हो पाता है जो वे चाहते हैं । साहित्य एक व्यक्ति की रचना के द्वारा अस्तित्व में आना प्रारंभ नहीं करता । यह तभीं अस्तित्व में रह सकता है जब दूसरे लोग भी इसको स्वीकार करते हैं, और यह एक सामाजिक जीवन का हिस्सा बन जाता है, और जब यह पठन, बहुत धन्यवाद की बात है कि, एक दूसरे में परस्पर बँटी हुई अनुभूति हो जाती है ।
इसकी यह केवल वाचिक सीमा ही नहीं है । बुद्धि और कल्पना में भी इसकी सीमा प्रकट होती है । इसमें विचारों का कंगालीपना है । सीधा सा कारण् यही है कि विचार, अवधारणाएँ जिनसे हम अपनी स्थिति के रहस्यों को ग्रहण कर पाते हैं, वे शब्दों से अलग स्थित नहीं होते हैं । अच्छे साहित्य और केवल अच्छे साहित्य से ही हम यह सीख पाते हैं कि कैसे सही रूप से, गंभीरता से, दृढ़ता और सूक्ष्मता से बोला जाता है । कलाओं की किसी भी साज-सज्जा में, किसी भी शाखा में साहित्य के स्थान की पूर्ति करने की शक्ति नहीं है जो लोगों के लिए आवश्यक भाषा की संरचना कर सके । ठीक-ठीक कहें तो समृद्ध और परिवर्तनशील भाषा के स्वामित्व के लिए, संवाद-सृजन हेतु प्रत्येक विचार, प्रत्येक संवग की प्राप्ति हेतु सामर्थ्य के लिए, चिंतन,अध्यापन, सीख एवं संवाद के लिए तथा कल्पनाशीलता, स्वप्न और अनुभूति के लिए अच्छी तरह तैयारी करनी होती है । गुप्त रूप में शब्द हमारे क्रिया-कलाप में अनुगुंजित होते है । उन कार्यों में भी उनकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है जो भाषा से बहुत दूर स्थित प्रतीत होते हैं । और चूंकि भाषा अनावृत हुई, उसका विकास हुआ तो धन्यवादार्ह है साहित्य कि उससे भाषा अपने परिष्कार और तौर तरीकों में उच्च स्थान प्राप्त कर सकी- इसने मानव के आनंद की संभावना में चार-चाँद लगाया ।
पूरे लेख को निम्न कड़ियों से क्रमशः पढ़ा जा सकता है –
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-1
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-2
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-3
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-4
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-5
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-6
- पुस्तक को असमय श्रद्धांजलि (The Premature Obituary of the Book)-7
यह लेख शृंखला बहुत पसंद आई।
माध्यम रहेंगे, पुस्तकों के स्वरूप बदलेंगे मात्र।
बहुत सुंदर जानकारियां दे रहे हे आप धन्यवाद
ऐसे अनुवादों से हिंदी साहित्य भी समृद्ध होगा। बधाई॥
साहित्य का भेद खुलता जा रहा है …
साहित्य पर साहित्यिक कृति का बेहतरीन साहित्यिक अनुवाद…
कई दिनों से अपठित पड़ा था फीड में. ऐसी पोस्ट के लिए फुर्सत का टाइम चाहिए होता है. आगे की कड़ी लाइए. मैं फिर आता हूँ.
श्रुति से लिपि, लिपि से श्रुति, श्रुति से दृश्य, दृश्य से श्रुति…. चक्र चलता रहेगा शायद। रूप चाहे जो हो, अक्षर तो अ-क्षर ही है।
आपका आभार ,कि यह सब हमें उपलब्ध हो सका – आगे पढ़ने की प्रतीक्षा रहेगी.मन को जो तोष मिला उस हेतु आपकी कृतज्ञ हूँ !
अनुवाद की शैली इतनी सहज है कि शीघ्रता से पढ़ी व समझी जा सकती है। बहुत सुंदर।
…..भौतिक आवश्यकताओं के पीछे अंधे होकर दौड़ने की प्रवृत्ति और दूरदर्शनी संस्कृति ने आम जन को साहित्य से दूर कर दिया। समाज में व्याप्त कटुता, चलचित्रों में दिखाई जाने वाली क्रूरता/अश्लीलता, गीतों में घुलती कर्कशता भी इसी का परिणाम है। संगीत, साहित्य और कला से दूरी का सीधा अर्थ होता है नैतिक पतन, जो हमें आज चहुँ ओर दिखाई पड़ता है।…
'आनंद की यादें' से..http://aanand-ki-yadein.blogspot.com/2010/10/18.html
nice
gcvk kjb