इस ब्लॉग पर करुणावतार बुद्ध नामक नाट्य-प्रविष्टियाँ मेरे प्रिय और प्रेरक चरित्रों के जीवन-कर्म आदि को आधार बनाकर लघु-नाटिकाएँ प्रस्तुत करने का प्रारंभिक प्रयास थीं । यद्यपि अभी भी अवसर बना तो बुद्ध के जीवन की अन्यान्य घटनाओं को समेटते हुए कुछ और प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने की इच्छा है । बुद्ध के साथ ही अन्य चरित्रों का सहज आकर्षण इन पर लिखी जाने वाली प्रविष्टियों का हेतु बना और इन व्यक्तित्वों का चरित्र-उद्घाटन करतीं अनेकानेन नाट्य-प्रविष्टियाँ लिख दी गयीं । नाट्य-प्रस्तुतियों के इसी क्रम में अब प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र ’राजा हरिश्चन्द्र’ पर लिखी प्रविष्टियाँ। सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं-’असतो मां सद्गमय’”
छठाँ दृश्य
(श्मसान का भयानक वातावरण। मरघट भूमि में चिताएँ जल रही हैं।
राजा सतर्क दृष्टि से प्रत्येक नवागत शव को खोज-खोजकर कफन इकट्ठा कर रहे हैं। इस कोने से उस कोने तक घूम रहे राजा की गंभीर मनःस्थिति है।)
राजा: हाय रे संसार की नश्वरता। यह सद्यःपरिणीता वधू का शव है। चिता पर आधा जला, क्षत-विक्षत झूलता हुआ। सिन्दूर रेखा अग्नि शिखा में विलीन हो गयी है। परिजन छोड़कर चले गए हैं। कौन साथी है, अब कौन बाँह पकड़ेगा? अब संगी धर्म होगा। (आगे बढ़कर) अरे, यहाँ तो पुत्र का शवदाह हुआ है। इसे छाती से लगाकर कैवल्य का सुख लूट रही थी भाग्यवती माँ। इसका मुख माँ की छाती पर अमृत लेप कर रहा था। सब सपना हो गया। (आगे बढ़कर) अरे, ये श्रृंगाल, श्वान शवों को नोंच रहे हैं, हड्डियों और खोपड़ियों को लात मारते हुए कापालिक अघोरी नंगे नाच रहे हैं। सुरा पात्र बनी है खोपड़ियाँ औघड़ों के लिए। हड्डियों की वीणा पर भैरव राग चल रहा है।
क्वचित वीणावाद्यं क्वचिदपि च हाहेति सदनं । न जाने जगतोयं किममृतयम् वा विषमयम् ॥
मेरी पीड़ा को मेरा विक्षिप्त हृदय दुहरा रहा है। जब मैं दृष्टि गड़ाकर देखता हुँ तो यह विश्वलुप्त हो जाता है। फूँक मारकर फुलाता हूँ तो मनुष्यता फूट जाती है। हारी हुई बुद्धि घोषणा करती है कि जीवन व्यर्थ का अध्ययन है, बेगार है।
(हरिश्चन्द्र दण्ड लिए श्मसान की हर छोर नाप रहे हैं, जोर जोर से बोलते हुए चेतावनी देते जा रहे हैं….)
राजा: अरे लोगों सुनो! मेरे मरघट के राजा की आज्ञा है कि बिना कफन का आधा वस्त्र कर में चुकाए कोई भी शव को नहीं जलाएगा। मेरे अधिकार में यह श्मसान घाट है। बिना कर दिए मुर्दा जलाने वाले को दण्ड दिया जाएगा। सुनॊं मुर्दा लाने वालों! बिना कफन का कर दिए मुर्दा नहीं जलाना है….सुनो, सुनो! खबरदार!
(रोहित को दोनों हाथों से छाती में चिपकाए शैव्या प्रवेश करती है। श्मसान के एक कोने में शव
भूमि पर रखकर करुण विलाप कर रही है।)
रानी: हाय रे मेरे लाल! मेरे सुगना, तू कहाँ उड़ गया। अब किसे कलेजे लगाकर जिऊँगी। किसके मुख को देखकर निहाल बनूँगी। जाग बेटे, देख तेरी मैया कलेवा लेकर बैठी है। एक बार तो उसके हाथ से कलेवा कर ले। कब से पुकार रही है तेरी माँ! कौन मेरी आँख बन्द करेगा! कौन माला की तरह गले में झूल जाएगा! बेटा, एक बार तो आँख खोल दे! तेरा विहँसता हुआ मुख देखकर अपने प्राणनाथ के वियोग का सब दुख हँस-हँस झेल गयी! मेरे आँखों की पुतरी! तुम एक बेर तो बोल दे मेरे लाल! सब विद्यार्थी आ गए हैं, पूजा की बेला बीत रही है। उपाध्याय बुला रहे हैं, उठ जा रे बेटा!
राजा:(चौकन्ना होकर) अरे इस नारी का विलाप सुनकर तो कलेजा मुँह को आ जा रहा है। क्या बात है कि मन खिंचा चला जा रहा है। आवाज कुछ पहचानी सी लग रही है। जगत की कोलाहलपूर्ण नीरवता में कोई दिव्यात्मा पंचतत्वों के बंधन काटकर मृत्यु का वरण कर रही है। यह कौन सा मधुर स्पर्श है, जो मुझे छू रहा है।
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रानी: हाय! हाय! जीवन नीरस स्थाणु हो गया है। वात्सल्य का उद्दाम ज्वार उतर गया है। हाय रे काल निर्मोही, तूने मिट्टी की कुँवारी सुगन्ध छीन ली। घर की एकमात्र टिमटिमाती लौ को फूँक मार बुझा दिया। अब कौन रूठेगा, कौन मचलेगा अपनी मैया के आगे! उठ जा लाल, मुझे घर की गैल बता दे बेटे! मन को मगन कर देने वाले रोहित, क्या माँ से नहीं बोलोगे?
राजा: अरे रोहित! इस नाम ने तो अनाम पीड़ा पैदा कर दी। किसी नई जलने वाली चिता की ओर चलूँ। मेरे रोहित के नयन, वयन, हलन-चलन, आकुल आलिंगन, विदा की बेला का आश्वासन, आह्वाहन-सब मेरी आँखों के आगे नाच गया। बेटे की दुग्ध-धारा सी निर्मल मुस्कान….। ओ! यह कौन माता है जो रो रोकर मरी जा रही है। अपने धड़कते, कसकते, मचलते जीवन की धरती पर आँसू की माला बरसा रही है।
रानी: नक्षत्रों, अपने लोक का पथ अवलोकित करो! आज पृथ्वी का महापुत्र यात्रा कर रहा है। ओह आकाश! अपने उद्यान के मधुर उज्ज्वल पुष्पों को इस महाअतिथि की यात्रा के पथ पर विसर्जित करो। अरे ओ बरसाती मेघमयी रजनी! इस अबोध बालक पर जिसने अपनी ही नहीं संसार की आँखों का उजाला खो दिया है, उस पर करुणा करो। मेरे बेटे! हो सकता है मेरा शरीर अभी मिट्टी में विलीन हो जाय, किन्तु तब भी तुम में जीवित रहेगी मेरे जीवन की सार-सत्ता…। रोहित में शैव्या, शैव्या में रोहित। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती ऐसे जीवन की, जिसमें चिड़िया का गाना नहीं, झुरमुट की हरीतिमा नहीं, पवन में नए धान्यों की महक नहीं, मकरन्द की मधुरिमा नहीं और स्वशिशु का शीतल स्पर्श नहीं। मैं मरकर भी सतृष्ण याद करती रहूँगी तुम्हारे मन्द स्व की आभा जो जीवन की सारसत्ता को आवाहित करती है।
राजा: अरे, ये करुण स्वर मुझे ढकेल क्यों रहा है उन दिनों की ओर, जो बीत गए हैं कब के। मेरे मुन्ने, तुम क्यों घेर लेते हो मेरा मन अपने प्यार के जाल की चहारदीवारी बाँधकर। हटा लो जरा मेरे दैनिक कार्यों में बाधा डालने वाले अपने हाथों को। अभी पहुँचा मैं इस नये आए शव के पास।
A blogger since 2008. A teacher since 2010, A father since 2010. Reading, Writing poetry, Listening Music completes me. Internet makes me ready. Trying to learn graphics, animation and video making to serve my needs.
मरघट में जीवन की नश्वरता स्पष्ट दिखती है।
☺☺
🙁 बिंध जाता है मन।
ओफ्फ! यह विलाप!! पढ़ना भी कठिन है।