सहज, सरल, सरस भजन: कब सुधिया लेइहैं मन के मीत, साँवरिया काँधा। बाबूजी की भावपूर्ण लेखनी के अनेकों मनकों में एक। छुटपन-से ही सुलाते वक़्त बाबूजी अनेकों स्वरचित भजन गाते और सुलाते। लगभग सभी रचनायें अम्मा को भी याद होतीं और उनका स्वर भी हमारी नींद का साक्षी हुआ करता। बड़े होने पर यह सब अलभ्य, हम सब अकिंचन। इन्हें सँजो रहा हूँ बारी-बारी। कई हैं– इनमें से एक यहाँ।
कब सुधिया लेइहैं मन के मीत: प्रेम नारायण पंकिल
कब सुधिया लेइहैं मन के मीत, साँवरिया काँधा।
कहिया अब बजइहैं बँसुरी, दिनवा गिनत घिसलीं अँगुरी
केतना सवनवाँ गइलैं बीत, साँवरिया काँधा॥१॥
कहिया घूमि खोरी-खोरी, करिहैं कृष्ण माखन चोरी
हँसि के लेइहैं सबके मनवाँ जीत, साँवरिया काँधा॥२॥
हाय कब कदम की छहियाँ, फिरिहैं श्याम दे गलबहियाँ
मुरली में गइहैं मधुरी गीत, साँवरिया काँधा॥३॥
विकल बाल गोपी ग्वाले, कहाँ काली कमलीवाले
जोरि काहें तोरी पंकिल प्रीति, साँवरिया काँधा॥४॥
कभी माँ से सुना था- लम्बी-लम्बी केसिया सबरी रहिया बटोरे रामा,एहि रहिया अइहैं हो सीरीराम हो सबरी के घरवाँ.