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प्रणय-पीयूष-घट हूँ मैं।
आँख भर तड़ित-नर्तन देखता
मेघ-गर्जन कान भर सुनता हुआ
पी प्रभूत प्रसून-परिमल
ओस-सीकर चूमता निज अधर से
जलधि लहरों में लहरता
स्नेह-संबल अक्षय वट हूँ मैं।
देखता खिलखिल कुसुम तरु
सुरभि हाथों में समेटे उमग जाता
पु्ष्प लतिका लिपट
क्षण-क्षण प्रेम-पद गाता अपरिमित
सौन्दर्य-छवि जिसमें विहरती नित
वही सुरपति-शकट हूँ मैं।
गगन होता जब तिमिर मय
जग अखिल निस्तब्ध सोता
सुन मधुर ध्वनि उस चरण की, सहज ही
आभास होता उस प्रखर आलोक का
सौन्दर्य-प्रतिमा पूजता निशि-दिन
सत्य-शिव-सुन्दर प्रकट हूँ मैं।
तृप्त मांसल रूप में भी
भग्न लुंठित स्तूप में भी
धूप में भी चिलचिलाती
हूँ अनिवर्चनीय शीतल
आर्तनाद करुण सुनता हूँ सदा पर
अट्टहास-प्रतिमा विकट हूँ मैं ।
जब भुवन-भास्कर सिधारा
कौन खग-रव मिस पुकारा
नित्य रात-प्रभात में
पिक-कीर-चातक घर निहारा
कल्पना कल्लोलिनी का
उल्लसित रोमांच तट हूँ मैं।
प्रणय-पीयूष-घट हूँ मैं।
सत्य-शिव-सुन्दर प्रकट हूँ मैं।…..
वास्तव में बहुत सुन्दर रचना,आभार।
धन्यवाद!
सावधान! छायावाद लौट रहा है……
किसी छाया से मुक्त ही कब हुआ कोई वाद भाई! आप आये, आभार!
हर दिन जीता हूँ, अमृत बिन्दु हूँ मैं, सुन्दर पंक्तियाँ
जलधि लहरों में लहरता
स्नेह-संबल अक्षय वट हूँ मैं।…गायत्री गौर की कलाकृतियाँ एकाएक याद आ गईं !
इन कलाकृतियों से साक्षात होना चाहूँगा! आभार।
hr shbd ke saath vaad chipkaane kii kutaiv sii paal rkhi hai hm logon ne
बहुत नुकसान हुआ है साहित्य-कर्म का इससे!
सुरूप से विरूप तक व्याप्त, परम चिति के व्यक्त रूप का मनोहर चित्रण-
आह्लादित कर गया!
आभार!
बहुत सुन्दर! लाजवाब!
बहुत सुन्दर रचना ..बधाई
कविता में शहद की मिठास है , पीयूष-घट सहज ही !
धन्यवाद!