इस ब्लॉग पर करुणावतार बुद्ध नामक नाट्य-प्रविष्टियाँ मेरे प्रिय और प्रेरक चरित्रों के जीवन-कर्म आदि को आधार बनाकर लघु-नाटिकाएँ प्रस्तुत करने का प्रारंभिक प्रयास थीं। यद्यपि अभी भी अवसर बना तो बुद्ध के जीवन की अन्यान्य घटनाओं को समेटते हुए कुछ और प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने की इच्छा है। बुद्ध के साथ ही अन्य चरित्रों का सहज आकर्षण इन पर लिखी जाने वाली प्रविष्टियों का हेतु बना और इन व्यक्तित्वों का चरित्र-उद्घाटन करतीं अनेकानेन नाट्य-प्रविष्टियाँ लिख दी गयीं। नाट्य-प्रस्तुतियों के इसी क्रम में अब प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र ’राजा हरिश्चन्द्र’ पर लिखी प्रविष्टियाँ। सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय। इस प्रविष्टि में रानी शैव्या एवं रोहित का मार्मिक प्रसंग व संवाद अलग प्रभाव उत्पन्न करते हैं। पिछली प्रविष्टियों राजा हरिश्चन्द्र- एक, दो, तीन, चार और पाँच और छः से आगे।
पाँचवा दृश्य: शैव्या एवं रोहित
(ब्राह्मण की कुटिया का दृश्य। कुटी में रानी शैव्या झाड़ू लगा रही हैं। रोहिताश्व पीछे से आकर रानी की आँख बन्द कर देता है।)
रानी: देख बेटे! अश्रु नदियों और पीड़ा पर्वतों की मैं राजरानी हूँ। अभी तुमने पीछे से आकर अपने कोमल हाथों से मेरी आँखें बन्द कर दीं; तुम्हारी अँगुलियों ने सुस्पष्ट भाषा में मुझे बताया, “सृष्टि में विकलता को देखने की अपेक्षा अंधता ही बेहतर है।” अब अपने लाल का मृदुल तन छाती से लगाया तो मुझे लगाया तो मुझे लगा, लालने दुलारने योग्य है दुनिया की हर चीज। केवल यही मृदल कोमल हाथ सुदृढ़ कर सकता है मंगलसूत्र की गाँठ को। बेटे आगे आ जा। बैठ यहाँ।
रोहित: माँ! पिताजी को बुला लो। कहाँ हैं, कहाँ हैं? हमारा जी जिस किसी भी भाँति उन तक पहुँच जाने के लिए बेचैन हो रहा है।
(रोने लगता है)
रानी: वे कहाँ हैं यही तो जिज्ञासा है। रो मत लाल। बार-बार चू पड़ने वाले तुम्हारी आँख के ये मोती मूल्यवान हैं हजारों सिक्कों से। सम्भव है तू आगे बढ़कर संसार की सजल आँखे पोछने की चेष्टा करोगे। तुम्हें आलिंगन में ले मैं उन्हें पा लेती हूँ।
रोहित: आज माँ, मुझे कलेवा करा देना अपने हाथ का। कब गुरु जी तत्काल तुम्हें कहाँ और मुझे कहाँ भेज दें, पता नहीं। तब तक पूरे प्रकाश की उपस्थिति होने के पहले ही दौड़कर मैं फूल तोड़ लेता हूँ।
(डलिया लिए फूल तोड़ने के लिए अंधेरी फुलवारी की ओर लपकता है। रानी उसकी ओर मौन देखती रह जाती है। फिर बर्तन धोने लगती है। तभी धड़ाम से गिरने का शब्द झाड़ी के बीच सुनायी देता है। रानी उठ कर जाती है।)
रानी: दौड़ो रे, बचाओ! मेरी आँख के आगे ही एक विशालकाय काला नाग घूमते हुए जा रहा है। उसने ही रोहित को डँस लिया है। आवाज भी नहीं निकली। शरीर काला हो गया है। मुँह से फेन बह रहा है। मेरी आँखों के सामने ही फूल की डलिया उलटी पड़ी है।
(इसी बीच रोहित की अंतिम हिचकी आती है। उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। रानी चीत्कार करती हुई गिर पड़ती है। ब्राह्मण कुछ शिष्यों के साथ दौड़कर आते हैं।)
ब्राह्मण: अरे, यह तो मर गया। मेरी फूलबगिया में मृत शरीर! मंडप अशुद्ध हो गया। लेकर भाग इसे श्मसान घाट। आज तो पर्व का दिन है। किसी को साथ लगा भी नहीं सकता। जा, चली जा। जा, बहती गंगा में इसे फेंक देना। कल सायंकाल तक अंतिम क्रिया करके चली आना। आगे समय नहीं दूँगा। ठीक से सुन लो! मरना-जीना तो लगा ही रहता है। कितने मरते हैं मरघट पहुँच कर अपनी आँखों देख लेना। मृत काया अधिक समय तक नहीं रखी जाती। वह प्रेताविष्ट हो जाती है। तुम इसे उठा ले ताकि स्थान धुलवाया जा सके।
रानी: यह चक्रवर्ती सम्राट का बेटा है विप्रवर! इसका शरीर यहाँ वसन विहीन मृत होकर पड़ा है। कम से कम प्राणशून्य इस अबोध बालक का शरीर ढ़्कने के लिए वस्त्र की व्यवस्था तो कर देते। मैं माँ हूँ। आप मेरे और मेरे इस कलेजे के टुकड़े-दोनों के बाप हैं।
(छाती पीट-पीट कर रोती है। कभी रोहित का मुँह चूमती है तो कभी उपाध्याय से गिड़गिड़ाती है।)
ब्राह्मण: मैं आज व्रतनिष्ठ हूँ। ईश्वर-चर्चा के अतिरिक्त और कुछ नहीं सुनना है मुझे। भागती है या….(क्रोधित होते हैं)
रानी: हे अन्तरिक्ष के साक्षी देवों! आज यह तेरी नृप वधू अपने चक्रवर्ती पुत्र को लेकर श्मसान भूमि जा रही है; यह कितना श्रुतिसम्मत है इसका प्रमाण कौन देगा!
(आधा आँचल फाड़कर पुत्र को ढँकती है। अकेले रोहित को उठाये श्मसान की ओर चल देती है।)
( शून्य से हा धिक, हा धिक! का स्वर सुनाई पड़ता है। पर्दा गिरता है।)
घिरते दुख के बादल हाहाकार करेंगे,
झरते क्षण भी सर्पदंश आकार धरेंगे।
हृदयविदारक दृश्य!
पर्वतों का कलेजा भी कंपा देने वाला दृश्य है यह!
(:(:(:
नीर भरी दुख की बदली…
रवि शंकर जी!
आगमन और टिप्पणी के लिए धन्यवाद!