भारत की साझी विरासत को लेकर बड़ा चिंतनशील हो चला हूँ। भारत की यह साझी विरासत सम्प्रदायवाद और आतंकवाद के साझे में चली गयी है। कभीं सम्प्रदायवाद बहकता है और किसी न किसी धर्म,सम्प्रदाय के कन्धों पर कट्टरता व धर्मांतरण की बंदूकें रखकर हमारी सांस्कृतिक एकरूपता, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व को चुनौती देने लगता है, तो कभीं आतंकवाद सनक कर हमारी सामाजिक एकरसता, समन्वय और मानवीयता को कलंकित कराने का दुष्चक्र रचता है।
साम्प्रदायिकता और आतंकवाद-बहुतों ने कहा- अब दो नहीं रहे। बहुत पहले से लेकर कुछ दिनों पहले तक आतंकवाद केवल आतंकवाद था, अब वह ‘हिंदू’ और ‘मुस्लिम’ आतंकवाद हो गया है। हमने आतंकवाद को अभी तक विशेषीकृत नहीं किया था -अब कर दिया। हम अवधारणाओं को बनाने मिटाने के आदी हैं। हमने हिंदू और मुस्लिम आतंकवाद की नयी अवधारणा की प्रतिष्ठा कर दी है, और इसके सापेक्ष्य साम्प्रदायिकता की अवधारणा में बहुत कुछ संशोधन कर दिया है।
राजनीति का क्रूर परिहास
अभीं कुछ दिनों पहले तक मैं केवल आतंकवाद के बारे में सोचता था, क्योंकि कुल मिलाकर भारत की धर्मनिरपेक्ष अंतर्शक्ति पर मुझे सदा का विश्वास है। भारत की साझी संस्कृति और विरासत मुझे गर्वोन्नत करते हैं। गंगा-जमुनी तहजीब का हरकारा हर साम्प्रदायिक घटना के बाद मुझे समझाने चला आता है। मैं बहल जाता हूँ यह सोचकर कि मेरे कस्बे में, मेरे आसपास तो हर व्यक्ति हिंदू,मुस्लिम,सिख, नहीं कहता अपने आपको। वह आदमी, इंसान है हर वक्त – साँसों में एक, तकलीफ में एक, खुशी में साथ।
तो फ़िर कैसे केवल सम्प्रदाय के नाम पर कोई किसी का खून कर सकता है, किसी की जान ले सकता है ! इसलिए साम्प्रदायिकता मुझे भारतीय राजनैतिक चहरे का क्रूर परिहास समझ में आती है, कुछ और नहीं। हिंदू वोटों के लिए मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलना और मुस्लिम वोटों की खातिर मुसलमानों की असुरक्षा व उग्र हिन्दुवाद की दुहाई देना- सब वोटों की राजनीति है।
वोट की इस राजनीति, दुष्प्रवृत्ति ने अतिरेकी समाज का निर्माण किया है। इस राजनीति ने धर्म, सम्प्रदाय का दामन पकड़ लिया है और कट्टरता-धर्मान्धता की घुट्टी पिलाकर हमारे जनमानस का शील हर लिया है। सम्प्रदायवाद की इसी प्रायोजित संकल्पना से उपजा है आत्तंकवाद। राजनीति है आतंक- आतंक का पदचिन्ह।
हमारे विचारों की निष्कृति है आतंकवाद
अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह आतंकवाद किसी विशेष समुदाय के विशेष हित की पूर्ति या किसी के लिए जिदपूर्वक व्यवस्था के अतिक्रमण की प्रवृत्ति का परिणाम है, या यह किसी विशेष धर्म (इस्लाम या हिंदू) से प्रसरित, प्रवाहित है तो ग़लत सोच रहे हैं आप; क्योंकि इन्हीं धर्मों ने कुछ समय पहले तक ऐसी नृशंसहत्याओं की प्रेरणा नहीं दी थी। तो निश्चय ही यह आतंकवाद हमारे विचारों की निष्कृति है।
यह विचार किसने पैदा किए- उन्होंने जो सामर्थ्यवान हैं, उन्होंने जो व्यवस्था के केन्द्र में हैं, उन्होंने जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के उपकरण ढूंढ रहे हैं, उन्होंने जो सत्ता की चारदीवारी के भीतर हैं और किसी भांति वहाँ से बाहर निकलना नहीं चाहते, या उन्होंने जो कट्टरपंथी रास्ते से व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की अभिलाषा रखते हैं कि वे भी उस व्यवस्था के अंग हो जाएँ।
सच कहूं तो मुंबई की वर्तमान घटना के बाद आतंकवाद या आतंकवादी से लड़ाई करने का जी नहीं चाहता। असली लड़ाई तो उस विचार से है जो केन्द्र में है उस भावना के जो एक कल्पित, अनिश्चित लक्ष्य के लिए जान की परवाह करने से रोकती है। ‘आत्मघात’ का सम्मोहन दे देने वाली इस वैचारिक प्रतिबद्धता से लड़ना है हमें। हमें हिंदू से नहीं लड़ना; हमें हिंदुत्व की ग़लत शिनाख्त देने वाली कट्टर विचारधारा से लड़ना है। हमें मुसलमान से भी नहीं लड़ना; हमें इस्लामियत की उस काल्पनिक प्रतिबद्ध मनोदशा से लड़ना है जो मानवीय जीवन की अवहेलना करती है, और अपनी विचारधारा के विस्तार के लिए जन-जन में महत्वाकांक्षा के बीज बोती है।
कैसे होगी यह लड़ाई? चिंतन करना होगा हमें? पर तत्क्षण मन में ‘अकबर इलाहाबादी‘ कौंध जाते हैं-
“वक्त की तकदीर स्याही से लिखी जाती नहीं है
अकबर इलाहाबादी
खून में कलमें डुबोने का ज़माना आ गया है। “
सत्ताधीशो को अपने बिलो से बाहर निकालने के लिये जरुरी है कि देशवासी दिल्ली की ओर कूच करे और इन कायरो को बिलो से बाहर निकाले। आप शांत हो गये तो इन बेशर्मो को चमडी बदलने मे जरा भी समय न लगेगा।
दुआ करे देश को फिर ऐसा नपुंसक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री न मिले।
chintan se nahi, akbar allahabadi ke ser ko sakar karana hoga hame (agaj nahi ab ran hoga, jivan saiya ki maran hoga,sangram bahut bhisan hoga!)
भाई आप की एक एक बात से सहमत हुं, ओर यह खरी खरी की इस टिपण्णी से सहमत हूं.
धन्यवाद
सच कहूं तो मुंबई की वर्तमान घटना के बाद आतंकवाद या आतंकवादी से लड़ाई करने का जी नहीं चाहता ।
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यह चाहने न चाहने का सवाल नहीं। आप न लड़ो तो हारो। यह अवस्था है। या कोई च्वाइस है भारत छोड़ कहीं और जाने की?
aaj sabhi yahi soch rahe hai..bas yahi soch ek rastra soch main badal jane ki koshish karni chaiye..har wayakti, har waqt sirf apne rastra ke baare main hi soche..baki cheeze apne aap thik ho jayegi..par kya hum me itni himmat hai ki apne aap ko badal sake?
क्षमा करना मेरे पूर्वजों, मैं हिजड़ा बन गया हूँ!
“हमें हिंदू से नहीं लड़ना ; हमें हिंदुत्व की ग़लत शिनाख्त देने वाली कट्टर विचारधारा से लड़ना है ।”
मैं पूरी तरह सहमत हूँ इस बात से . बहुत अच्छा लेख लिखा है .
चिन्तनपरक!