कहाँ हो मेरे मन के स्वामी आओ,
मैं हूँ एक अकिंचन जग में प्रेम-सुधा बरसाओ।
आज खड़ा है द्वार तुम्हारे तेरी करुणा का यह प्यासा
दृष्टि फेर दो कुछ तो अपनी दे दो अपना स्नेह दिलासा
हे मेरे जीवनधन मुझको, यों ना अब तरसाओ।
कहाँ हो मेरे मन के स्वामी आओ?
मैं पुकारता क्षण-क्षण तुमको और विरह के गीत गा रहा
होता यह आभास प्राण-प्रिय हृदय-वीथि में चला आ रहा
होकर प्राण-प्रतिष्ठित हिय में मुझको धन्य-धन्य कर जाओ।
कहाँ हो मेरे मन के स्वामी आओ?
यह अनुरागी चित्त जी सकेगा यदि तुम स्मित बिखेर दो
मुझ-से शुष्क तृषित जीवन पर रस्दायिनी दृष्टि फेर दो
मुसका दो, आलिंगन में लो, अन्तर्यामी आओ।
कहाँ हो मेरे मन के स्वामी आओ?
बहुत ही सुंदर भजन. इसे गावा कर रेकॉर्डिंग करवाइए. आभार.
धीरे धीरे अतिशीघ्रतापूर्वक आप वृद्ध हो रहे हैं ! !
“मुझ-से शुष्क तृषित जीवन पर रस्दायिनी दृष्टि फेर दो”
सुंदर है ! !