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क्यों न मेरा यह हृदय
मूक-सा रहने दिया?
क्या करुँ उस अग्नि का
निशि-दिन जले जो इस हृदय में
क्या करुँ उस व्यग्रता का
जा छिपी जो उर-निलय में
क्यों असीमित यह प्रणय
बहु-रूप सा रहने दिया?
तारकों की तूलिका से
रंगा है, वो व्यथा का आकाश है
घन-तिमिर की लहर में
आंसुओं के कमल का आवास है
क्यों न स्मृति-निलय मेरा
शून्य-सा रहने दिया?
क्यों न मेरा यह हृदय
मूक-सा रहने दिया?
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गहन और प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति !
कमाल की रचना !
तारकों की तूलिका से
रंगा है, वो व्यथा का आकाश है
घन-तिमिर की लहर में
आंसुओं के कमल का आवास है
क्यों न स्मृति-निलय मेरा
शून्य-सा रहने दिया
bahut sundar rachana badhai
बहुत सुंदर गहरे भाव लिए हैं आपकी यह रचना