मैं लिख नहीं पा रहा हूँ कुछ दिनों से। ऐसा लगता है, एक विचित्रता भर गयी है मुझमें। मैं सोच रहा हूँ कि चिट्ठाकारी का यह कार्य-व्यापार कुछ दिनों के लिए ठहर क्यों नहीं जाता? वहीं, जहाँ छोड़कर इसे मैं ठहर गया हूँ। यह निरंतर गतिशील अखण्डता-अनवरतता का मोह क्यों बांधे रहता है जगत को? कि हम रोज लिख-रच रहे होते हैं। सर्जनात्मकता की अंतर-प्रवहित धारा किसी न किसी रूप में बेचैन करती रहती है हमें!

मैं महसूस करता हूँ कि सर्जनात्मकता जब धर्म बन जाती है, तो वह गति-अगति से ऊपर, ज्ञात-अज्ञात से परे किसी भी विभाजन के पार ‘अज्ञेय’ की स्वीकृति बन जाती है।

सर्जनात्मकता का प्रस्थान-बिन्दु ही यह जिद है कि जो कहा नहीं जा सकता, जो पहली निगाह में गूंगे के गुड़-सा अकथ प्रतीत होता है, उसे शब्द (या किसी अन्य माध्यम ) के जरिये कहा जाय यानी सिर्फ़ दूसरे को सुनाने के लिए ही नहीं, ख़ुद भी सुनने के लिए।

डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल

तो ख़ुद भी सुनने के लिए / दूसरों को सुनाने के लिए मनुष्य (मैं) सर्जनाशील रहने का यत्न करता है, बिना समय-असमय का विचार किए। शब्द उसका माध्यम है। हर समय यह मनुष्य समय की चिंता करता रहता है। मन एक अजीब सी जीवैषणा से त्रस्त हुआ जाता है-गत को झुठलाना, अनागत की प्रतीक्षा करना। तो निरंतर चिन्ताशील मनुष्य का यह मन आशाओं का आश्रय ले अपनी क्रिया-गति तीव्र कर देता है। यह गति काल के पदाघात से निरंतर और भी तीव्र होती जाती है। मैं डर जाता हूँ। प्रभाकर माचवे की भाषा में सोचता हूँ-

जिस दिन गति इतनी तीव्र हो जायेगी कि वह अ-गति का रूप ले लेगी- तो क्या होगा?

प्रभाकर माचवे

एक हफ्ते इस चिट्ठाकारी से अयाचित विराम, उसी दौरान की बीमारी और इस अवधि में कुछ गंभीर पठन के कारण इस प्रकार के अस्पष्ट विचार उत्पन्न हुए; उन्हें ज्यों का त्यों लिखने की बात सोची- एकांश प्रस्तुत है। अर्थ की संगति न बैठे, तो क्षमाप्रार्थी!