जरा और मृत्यु के भय से यौवन के फ़ूल कब खिलने का समय टाल बैठे हैं? जीवित जल जाने के भय से पतंग की दीपशिखा पर जल जाने की जिजीविषा कब क्षीण हुई है? क्या कोयल अपने कंठ का मधुर राग बिखेरना मेढकों के कटु शब्द से विक्षिप्त होकर छोड़ देती है? शायद नही। जीवन का यह दृष्टिकोण समझ आ रहा है कि विषय नहीं, विषय का विनिवेश ही आप्लावित करता है। तृप्त-अतृप्त आकांक्षाओं से मुक्त गहरे आनन्द का चिरन्तन प्रकाश है यह जीवन। तीर की चाह पीड़ा का स्रोत है। जीवन की उत्ताल तरंगें किसी तट से नहीं टकराती।
कई बार जिससे मैं समझता हूं कि मेरा कोई रिश्ता-नाता नहीं, उसकी चिरपरिचित पुकार का आकर्षण मन में सुगन्ध की तरह खिलता है और मैं बेचैन यहाँ-वहाँ घूमता रहता हूं। जरूर मेरे और उसके बीच कोई अन्दर ही अन्दर प्रवाहित होने वाली नदी बहती है। मैं भले ही धूप-छाँव के खेल में उलझा हूँ, लेकिन वह पुकारता है तो पुकारता ही चला जाता है। लाख चाहता हूं भरम जाऊँ, कहूँ-कोई नहीं, कुछ भी नहीं, कोई बात नहीं। पर हृदय का एक कोना कह ही देता है, किसने बाँसुरी बजाई –
“किसने बाँसुरी बजाई
जानकी वल्लभ शास्त्री
जनम-जनम की पहचानी यह तान कहाँ से आई?”
फिर भटकाया 🙂
बहुत प्रवाहमय एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
आप बड़े भाग्यशाली हैं. बाँसुरी सबके लिए नहीं बजती और यदि बजती भी है तो सुनाई नहीं देती. आप तो सुन रहे हैं. आभार.
अपने अन्दर निरंतर बहती पुकार को सुनना सबके बस की बात नही …आप सुन रहे हैं अच्छा है ..बढ़िया लगा यह ..
अच्छा लिखा है,आपका लेखन प्रभावी लगा,अत्यन्त सुंदर,धन्यवाद.
इस बंसुरी के तो बहुत से दिवाने है, लेकिन सुनती किसी किसी को ही है, क्योकि इस बांसुरी को सुनने के लिये भी बंसुरी वाले को जानना जरुरी होता है.
बहुत सुंदर,
धन्यवाद
नमन !
आपको ,उस सुगंध को , बासुरी के उस स्वर को !