आज का मनुष्य यह भली भाँति समझता है कि उसकी सफलता के मूल में वह सद्धर्म (चाटुकारिता) है, जिसे निभाकर वह न केवल स्वतः को समृद्धि और सुख प्रदान करता है, बल्कि दूसरे की महत्वाकांक्षा व उसके इष्ट को भी साधता है। कितनी सुखद और विशद है इस सद्धर्म की गति? इस लोकैषणा के युग में जहाँ सब कुछ प्राप्य नहीं, जहाँ संघर्ष ही जीवन है, जहाँ टूटन ही बिखरी पड़ी है चंहुओर, यह चाटुकारिता ही है जो अपनी मनोहारिता से, अपनी वाक् चतुरता से ऐसी सृष्टि निर्मित करती है जहाँ हमें सब कुछ प्राप्त होता बिना संघर्ष के, बिना कठिन गति के।
वर्तमान का सत्य है, जिससे इष्ट सधे वही देवता है। आज न जाने कितने भद्र हैं जो धन और शक्ति का केन्द्र बनकर देवता हो जाते हैं। फ़िर तो आज के मनुष्य के लिए आसानी हो जाती है, वह जितने चाहे उतने देवता बदल ले। हमारा प्राचीन देवता ऋचाएं सुनता था, प्रार्थना के विभिन्न गीत भी, और प्रसन्न हो जाया करता था, वरदान दिया करता था; हमारा आधुनिक देवता भी इस परम्परा को जीवित रखता है, बस ढंग बदल जाता है।
मानव, मानव का वैशिष्ट्य निरुपित करता है चाटुकारिता से। कितना उत्कृष्ट मानववाद है? चाटुकारिता का महनीय कार्य मनुष्य के आकांक्षा जगत और वस्तु जगत के मध्य के अन्तर को समाप्त कर देता है। चाटुकार अपनी चाटुकारी से हमारे सामने आकांक्षाओं का स्वर्ग निर्मित करता है, और हमें तत्क्षण ही उस स्वर्ग का अधिपति बना देता है। चाटुकार अपने कौशल से हमें हमारी सीमाओं के बोध से मुक्त कर देता है। हम झट से सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान बन जाते हैं।
चाटुकारिता और शब्द की आराधना
चाटुकार ‘शब्द’ की आराधना करता है। आख़िर शब्द ही तो ब्रह्म है। शब्द की मंत्र-शक्ति से वह हमें तुंरत ही जड़ से सूक्ष्म, नित्य से अनित्य, लघु से विराट में रूपांतरित कर देता है। वह इन शब्दों से हमारे सामने जो चित्र खींचता है, हम उस चित्र के साक्षात्कार से अभिभूत होने लगते हैं। अब हम पथ के साथी नहीं रह जाते, पथ के दावेदार हो जाते हैं। वस्तुतः चाटुकार की सफलता यही है।
कितना सारग्रही है, इस चाटुकारिता के धर्म का पालन? हमारे उसी पुराने धर्म की तरह भक्त और भगवान् के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध का वाहक है यह धर्म। और बड़ा ही समतामूलक धर्म है यह। देवता भी मनुष्य, पूजने वाला भी मनुष्य। प्रासंगिक भी कितना है हमारे युग के लिए कि दुर्बल और अपने अस्तित्व के प्रति शंका-ग्रस्त मनुष्य भी चाटुकार बन अपना अस्तित्व संवार सकता है, और सटीक कितना है इस लोकतंत्र के लिए कि इसमें अभिव्यक्ति की पूरी गुंजाइश विद्यमान है, क्योंकि लोकतंत्र में सबको अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है।
हिमंसशु जी!!
आपके अनुसार चाटुकारिता ………. चाहे सही हो या ग़लत मैं ज्यादा उसमे टिप्पणी न करके सीधे अपनी बात पर आता हूँ / दर-असल तर्क और कुतर्क के बीच एक महीन रेखा भर होती है ……… और उस पर चलना ….तलवार की नोक की तरह !!! ज्यादातर लोग अपने वाक् चातुर्य से उन शाश्वत तथ्यों को भी जब झुठलाने की कोशिश करने लगते हैं , तब मन में पीड़ा का भाव आता है ………और सच्चे ह्रदय में कष्ट भी होता है / वैसे यह दुनिया है…….तरह तरह के लोग हैं , तरह के तरह के तर्क ……..और कई तरह के कुतर्क!!!
अच्छा लगा!!
अच्छा चिन्तन किया चाटुकारिता पर. प्रवीण जी से भी सहमत हूँ.
चाटुकारिता अन्य कलात्मक मानवीय अभिवृत्तियों की ही भांति मनुष्यता की एक अनमोल थाती है -इससे इतना विद्वेष क्यों ?
किसी को लार्जर देन लाइफ बताना चाटुकारिता है। पर किसी की सही प्रशंसा करना – यह करने वाले की महानता है।
ज्ञान जी ठीक ही कहते होंगे .
हिमांशु जी,
अगर आपने यह लेख व्यंग्य के नजरिए से लिखा है तो मैं आपके लिखे हेतु आपको बधाई देना चाहूंगा.
शायद आप सहमत हों अथवा नहीं, किन्तु इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति एवं समाज का उद्भव होता है और न हि विकास।
चाटुकारिता यानि चम्चागीरी सीधे ओर साफ़ शव्दो मे तो मुझे यही लगता हे,कोई चम्च्चा कितना भी अमीर बन जाये, कितने भी उच्च पद पर पहुच जाये, लेकिन वो अपना ओर अपने देश का सत्यनाश ही करता है,ओर कभी भी चाटुकारिता को कोई भी बढाई के रुप मे नही लेता,
बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने , आप से एक प्राथाना है, जब भी आप के किसी भी लिंक पर जाये तो झट से कई खिडकियां खुल जाती है, ओर टिपण्णी देने मै भी कठनाई होती है, कृप्या ध्यान देवे.
धन्यवाद
“चाटुकारिता का महनीय कार्य मनुष्य के आकांक्षा जगत और वस्तु जगत के मध्य के अन्तर को समाप्त कर देता है”
अच्छा है.
हिमांशु जी, आप व्यंग्य भी उतना ही बढिया लिखते हैं जितना कि अन्य विधाओं में. बधाई!