मैं अकेला खड़ा हूँ
और तुम्हारे आँसुओं की धाराएँ
घेर रही हैं मुझे ,
कुछ ही क्षणों में यह
पास आ गयी हैं एकदम ,
शून्य हो गया है मेरा अस्तित्व
बचने की कोई आशा ही नहीं रही,
मैं हो जाता हूँ निश्चल,
फ़िर धाराएँ
जिधर चाहती हैं बहा ले जाती हैं
मेरे जैसा अधीर, गंभीर हो जाता है
मेरा मस्तिष्क, मेरी आत्मा,
मेरा चिंतन -सब कुछ
इन धाराओं के अधीन हो चला है ,
इन धाराओं की गति से
मैं निश्चेष्ट तुम्हारे सम्मुख
आ पड़ा हूँ, और तुम
उन्हीं आँसू भरी आंखों से
निहार रहे हो मुझे …
……………………..
तभी तुम हँस पड़ते हो
मैं जी उठता हूँ ।
तुम हंस पड़ते हो, मैं जी उठता हूं सुन्दर!
बहुत सुन्दर !
सुन्दर अभिव्यक्ति!