प्रेम पत्रों का प्रेमपूर्ण काव्यानुवाद: पाँच
Capture of Love Letters |
अब तक जो मैं हठ करती थी, हर इन्सान अकेला होता
मुझे पता क्या था जीवन यह अपनों का ही मेला होता।
यही सोचती थी हर क्षण केवल मनुष्य अपने में जीता
उसके लिये नहीं होता जग, ना वह किसी और का होता।
किसी एक का, किसी एक से मिलना परम असम्भव है
अलग-अलग दो अस्तित्वों का होना एक कहां सम्भव है?
ऐसे भाव भरे थे मन में मैं बेकल होकर जीती थी
एकाकी मैं किससे कहती मुझ पर कब क्या-क्या बीती थी?
तभी-तभी तो तुम आये थे, सत्य मिला था, सत्व मिला था
मेरे अन्तस में भी तेरे वृहत रूप का फ़ूल खिला था।
अब तो प्रियतम दशा वही है, भूल गयी हूं निज को अपने
विस्मृत जग है, कण-क्षण विस्मृत,पाकर इस सुरभित को अपने।
बस करती हूं, आज यहीं तक, प्राण! मुझे रह जाने दो
अपने प्रेम-सरित को मेरे हृदय जगत पर बह जाने दो।
बस करती हूं, आज यहीं तक, प्राण! मुझे रह जाने दो
अपने प्रेम-सरित को मेरे हृदय जगत पर बह जाने दो.
-बहुत उम्दा!! सुन्दर प्रेमानुवाद संपूर्ण प्रेमभाव से प्रेमपत्र का. आगे भी प्रेम से जारी रखें प्रेम धारा बहाना.
अरे तो अभी यह अजस्त्र धार बह ही रही है मैंने तो समझा था की निःशेष हुयी !
बहुत सुंदर !
bahut sundar…
अच्छी रचना है।
अर्थपूर्ण
—मेरे पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें । चाँद, बादल और शाम । तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
BAhut sundar rachana….
Reagards
खूबसूरत रचना ।
uttam rachna. badhai
Wah..wa
Wah..wa
Bahut khoob……….
आपकी कविता प्रेम का अलौकिक रूप प्रस्तुत करती है ,
मुझे सदैव आध्यात्मिकता से भरी लगाती है
बहुत सुन्दर!!
शुभ कामनाएं !!
prem ki sunder abhivyakti ko sunder shabdon se sanjoya hai bdhai
बहुत सुंदर…प्रेम की ही तरह.
बहुत सुन्दर
—-
गुलाबी कोंपलें