बहुत वर्षों पहले से एक बूढ़े पुरूष और स्त्री की आकृति के उन खिलौनों को देख रहा हूँ जिनके सर और धड़ आपस में स्प्रिंग से जुड़े हैं। जब भी उन खिलौनों को देखता हूँ, उनके सदैव सहमति में हिलते सिर मुझे खूब आकर्षित करते हैं। मौन, परंतु पूर्ण व्यक्त। यह अपने बचपन में भी कई बार अपने दादा-दादी को देख न पाने की टीस इन्हीं खिलौनों से मिटा लिया करता था। बहुत सी बातें जो अम्मा-बाबूजी से व्यक्त नहीं कर पाता था, इन्हीं खिलौनों वाले दादा-दादी से कहता और उनका प्रबोध ले लिया करता था। इन खिलौनों वाले दादा-दादी का बड़ा ऋण है मेरे इस व्यक्तित्व पर।
इन खिलौनों का सिर सदैव सहमति के लिए हिलता है। यद्यपि केवल एक अंगुली के विपरीत धक्के से इनके सिर के कम्पन की दिशा बदली जा सकती है, पर न जाने क्यों मानव-मन की अस्तित्वगत विशेषता के तकाजे से हर बार अंगुलियाँ इनके सिर सहमति के लिए ही कम्पित करती हैं। मुझे यह खिलौनों का जोड़ा बड़े मार्मिक गहरे अनुभूति के अर्थ प्रदान करता है।
मैं सोचता हूँ कितना अच्छा होता- हर एक सिर इसी तरह सहमति में हिलता, प्रकृति और जगत के रहस्य को निस्पृह भाव से देखता, विधाता की प्रत्येक लीला को सहज स्वीकारता। जो घट रहा है इस संसार में, वह दुर्निवार है, तो यह खिलौनों का जोड़ा उसे सहज स्वीकृति देता है- जानता है कि अगम्य है प्रकृति का यह लीला-विधान। जो रचा जा रहा है यहाँ, कल्याणकारी है, तो सहज ही सिर हिल उठते हैं आत्मतोष में इन खिलौनों के।
सिर हिलाने की मौन अभिव्यक्ति
यह खिलौने जानते हैं कि संसार अबूझ है-जिह्वा की भाषा से व्यक्त न हो सकने वाला। तो जिह्वा की असमर्थता, भाषा की अवयक्तता उनकी इसी मौन सिर हिलाने की अभिव्यक्ति में प्रकट होती है। शायद इन खिलौनों का सहमति में सिर हिलाना विशिष्टतः बोलना है। भाषा और शब्द का संसार इतना सीमित नहीं कि वह जिह्वा और अन्य वाक् अंगों का आश्रय ले। ‘पाब्लो नेरुदा’ (Pablo Neruda) की एक कविता ‘The Word’ स्पष्टतया व्यक्त करती है कि शब्द और भाषा का संसार कितना व्यापक हो सकता है-
……For human beings, not to speak is to die-
language extends even to the hair
the mouth speaks without the lips moving
all of a sudden the eyes are words…मनुष्य के लिए चुप्पी मौत है –
Pablo Neruda
केश तक में भाषा का विस्तार है,
मुख बिना होंठ हिले बोलता है
हठात आँखें शब्द बन जाती हैं….।
शायद यही कारण है कि इन खिलौनों का स्वरूप मुझे अपनी अनुभूतियों की राह से गुजरने के बाद शाश्वत मनुष्य का स्वरूप लगता था, इनका मौन गहरी मुखर अभिव्यक्ति बन जाता था और इनका सत्वर सिर हिलाना मानवता और अस्तित्व की सहज स्वीकृति लगाने लगता था। मौन की भाषा का विचित्र सम्मोहन छा जाता।
यह सच है कि इनके केश नहीं थे, आँखें भी नहीं थीं, होठ भी नहीं थे सचमुच के (और इसीलिये यह ‘नेरुदा’ के मनुष्य नहीं थे), पर हो सकता है कि ‘मनुष्य’ को खोजते हुए मेरे इस अतृप्त मानस ने इन्हीं में अपने सच्चे मनुष्य का स्वरूप देख लिया हो।
आत्म शान्ति की ओर अग्रसर, ऊँ शान्ति ऊँ
—मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें
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तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
मनुष्य मन स्वीकारोक्तियों की ही अपेक्षा करता है और प्रमुदित और उत्साहित होता रहता है -खिलौना तो महज टेक है -काश हमारे इर्द गिर्द के लोग इन खिलौने जैसे ही सहज स्वीकार की मुद्रा अपनाने वाले होते !
ऐसी ही एक बिल्ली भी मिलती थी. हमने देखा था कि एक बुजुर्ग महिला घंटों उस बिल्ली को ही देखती रहती थी. जान नहीं पाया कि उन दोनों के बीच किस प्रकार का संवाद चलता था. सुंदर पोस्ट. आभार.
hindi bloging mae itni achhi post kam hi miltee haen . kament ki chinta naa kartey huae likhtey rahey .
अच्छी पोस्ट है।
रचना जी से सहमत हैं जी हम भी !
bahut accha likha hai sir…isi tarah likhte rahe…
हम सब भी आज ऎसे ही खिलोने बने हुये है, फ़र्क बस इतना है कि यह बोल नही पाते, ओर हम बोल सकते है.
धन्यवाद हमेश की तरह से इन सुंदर विचारो के लिये
बहुत बढि़या रचना। सहज-सामान्य खिलौने के माध्यम से गहरी मानवीय अभिव्यिक्त। धन्यवाद। हौसला अफजाई का भी।….अनुज खरे
यह खिलौने न भी हों तो व्यक्ति सहमति मूलक चरित्र की कल्पना कर लेता है।
चरित्र न भी हो तो भी प्रकृति में सहमति ढूंढता है मानव। काग मुंड़ेर पर बैठा है – इसमें भी कुछ सार्थक अर्थ कल्पित करता है।
नैसर्गिक स्वभाव।
सुंदर विचार
यथार्थ और सटीक चिंतन
sir u r realy great and thinklike a philospher abhishek tinku
मुझे मौन होना है !
आभार श्याम जी!