“किं कर्मं किं अकर्मं वा मुनयोप्यत्र मुह्यते”।
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करुणावतार बुद्ध
यहाँ पढ़ेंसिद्धार्थ के गौतम बुद्ध बनने तक की घटना को आधार बनाकर रचित इन नाट्य प्रविष्टियों में विशिष्ट प्रभाव एवं अद्भुत आस्वाद है।
राजा हरिश्चन्द्र
यहाँ पढ़ेंसिमटती हुई श्रद्धा एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी।
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आप क्यों चिंतित होते हैं ! प्रकृति की विहंगम लीला में आप भी तो बस निमीत्त मात्र ही हैं ना ? निमित्तमात्रं भावः सव्यसाची ! और जहाँ प्रकृति को आपसे कुछ कराना होगा वह करा लेगी आपके चाहे या न चाहे बिना भी -प्रक्रितित्स्वाम नियोक्ष्यति !!
यह तो कुदरत का नियम है …जो होना है वह होना ही है .सबने अपने जीने का मार्ग कैसे भी तालाश कर लेना है
प्रकृ्ति की लीला देख कर ही मनुष्य जीने की कला सीखता है,ाउर इसी से अपनी राह तलाशता आप भी अप्रोक्ष मे यही कर रहे हैं
विप्र जागो. सबकुछ माया है. क्यों भ्रमित हो रहे हो. आभार.
कितना संयोग है – आज मैं एक चिड़िया को यही करते देख रहा था। उसकी फोटो लेने की कवायद भी की। पर यह नहीं ज्ञात था कि आप उस क्रिया पर इतनी सुन्दर पोस्ट लिख रहे हैं।
मुझे चिड़िया का फुदक फुदक कर कीट पकड़ना सुन्दर लग रहा था। कीट की गति पर तो ध्यान ही न गया।
सुंदर !
हिमांशु जी!!
प्रकृति हमें कई ढंग सिखाती है …… यह भी उसी का क्रम है ……हम हैं तो हैं ……पर दुनिया के सभी प्राणी अपने जीने के ढंग से ही जियेंगे !!
आप चाहे इसे जिस नजरिये से देखें …… पर प्रकति अपने नियम हैं जिन्हें स्वीकार करना ही पडेगा!!
इसलिए भाई यदि आप चिंतित हैं ….. तो चिंता गैर वाजिब है !!
पर जहाँ तक आपके लेखन को समझ पाया हूँ …. यह आपका स्वाभाविक चिंतन है !!
अति सुंदर लेख है लेकिन यह सब तो प्रकृति का ही खेल है.
धन्यवाद
kya bat hai guru bahut achha.