पात-पात में हाथापायी
बात-बात में झगड़ा
किस पत्थर पर पता नहीं
मौसम ने एड़ी रगड़ा।
गांव गिरे औंधे मुंह
गलियां रोक न सकीं रुलाई
’माई-बाबू’ स्वर सुनने को
तरस रही अंगनाई,
अब अंधे के कंधे पर
बैठता नहीं है लंगड़ा।
अंगुल भर जमीन हित
भाई का हत्यारा भाई
हुए बछरुआ परदेशी
गैया ले गया कसाई,
गोदी बैठा भों-भों करता
झबरा कुत्ता तगड़ा।
पूजा के दिन गंगाजल की
घर-घर हुई खोजाई
दीमक चाट रहे कूड़े पर
मानस की चौपाई,
कट्टा रोज निकाल रहे हैं
बन कर पिछड़ा-अगड़ा।
अब अंधे के कंधे पर
बैठता नहीं है लंगड़ा
हिमाशु जी बहुत ही सटीक रचना है आज यही सब देखने सुनने को मिल रहा है . अब तो उल्टा हो रहा है अब तो लंगडे के कंधे पे अंधे बैठते है
कहानी मेरी रूदादे जहाँ मालूम होती है।
जो सुनता उसी की दास्तां मालूम होती है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
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shyamalsuman@gmail.com
सुन्दर!
कवित सुंदर बन पडी है -पर इतनी छोटी क्यों ?
सुन्दर. लेकिन यह सब तो जबलपुर में ही होता है!
पूजा के दिन गंगाजल की
घर-घर हुई खोजाई
दीमक चाट रहे कूड़े पर
मानस की चौपाई,
कट्टा रोज निकाल रहे हैं
बन कर पिछड़ा-अगड़ा ।
vastavik hai bhai…aaj ka akhbaar bhara pada hai.
कुछ और लिखने को नहीं है क्या !
आपने कुश के ब्लॉग में टिप्पणी की थी ..निराशावादी नही होकर आशावादी रचना लिखने की और यहाँ आप ही नकारात्मक हो लिए. बुरी बात.
बहुत ही सुंदर कविता, बधाई!
वाकई बहुत ही सटीख और सामयिक रचना. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सुन्दर कविता! पर ये सुब्रह्मण्य़म जी क्या कह रहे हैं, जबलपुर के बारे में?!