जो प्रश्न हैं अस्तित्वगत
तूं खींच चिन्तन बीच मत
बस जी उसे उस बीच चल
उससे स्वयं को दे बदल।

यदि प्रेम को है जानना
तो खाक उसकी छानना
उस प्रेम के भीतर उतर
निज पूर्ण कायाकल्प कर।

जो प्रश्न के आयाम हैं
सब बुद्धि के व्यायाम हैं
संतुष्ट हो या हो नहीं
अंतर न कुछ पड़ता कहीं।

पहले जहां थे हो वहीं
हो ही नहीं पाये सही
कुछ भी न परिवर्तित हुआ
क्या प्रश्न ने अन्तर छुआ?

कुछ तर्क दे सकता नहीं
वह नाव खे सकता नहीं
विधि हो न तो सब व्यर्थ है
बस आंख का ही अर्थ है।

दे संशयात्मा मन बदल
संशय न कर चल शीघ्र चल
हो दृष्टि की उपलब्धता
बस है इसी में सत्यता।

अध्यात्मके एक लेख से उपजे कुछ विचार कविता बन गये