आज तुम
मेरे सम्मुख हो,
मैं तुम्हारे ‘आज’ को
‘कल’ की रोशनी में देखना चाहता हूँ।
देखता हूँ
तुम्हारे ‘आज का कल’
‘कल के आज’ से
तनिक भी संगति नहीं बैठाता।
कल-आज
आजकल
समझ में नहीं आते मुझे।
आज तुम
मेरे सम्मुख हो,
मैं तुम्हारे ‘आज’ को
‘कल’ की रोशनी में देखना चाहता हूँ।
देखता हूँ
तुम्हारे ‘आज का कल’
‘कल के आज’ से
तनिक भी संगति नहीं बैठाता।
कल-आज
आजकल
समझ में नहीं आते मुझे।
मुझे भी समझ में नहीं आया हिमांशु !
आदमी बहुत बदल गया है।
कल-आज
आजकल
समझ में नहीं आते मुझे
” ये आज और कल का सामंजस्य सच मे बहुत अदभुत है , “
Regards
भाई हिमांशु जी अगर समझ ही आजायें तो फ़िर कल और आज कैसे?
रामराम.
bahut achhi lagi kavita,aaj kal ka khel kaun samjha duniya mein.
देखता हूँ
तुम्हारे ‘आज का कल’
‘कल के आज’ से
तनिक भी संगति नहीं बैठाता ।
…………सही कहा आपने। हर पल जिंदगी के रूप बदल रहे हैं और उससे भी तेज बदल रहा है इंसान।
कल-आज
आजकल
समझ में नहीं आते मुझे ।
सुन्दर !!!
परिवर्तन की गति तेज हो गयी है.
पेचदगी है इसमे.अच्छी रचना.
परन्तु उस व्यक्ति से क्या कहेंगे जिसका “आज का कल” मेल खा जाए “कल के आज” से — पूरा तो नहीं, पर मान लीजिए ५० प्रतिशत ही. तो क्या कहेंगे उसे- सौभाग्यशाली, बेचारा, या अजूबा?
इस आज कल मै ही पुरी जिन्दगी बीत जाती है, लेकिन यह आज कल समझ नही आते.
धन्यवाद