आज गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मदिवस है, एक अप्रतिम सर्जक का जन्मदिवस। याद करने की बहुत-सी जरूरतें हैं इस कवि को। मुक्तिबोध प्रश्नों की धुंध में छिपे उत्तरों की तलाश करते हैं- चोट पर चोट खाकर, आघात पर आघात सहकर। जो उपलब्ध होता है वह है उद्घाटित अन्तर्निहित सत्य। आदमी और आदमी के मन से जुड़ता है इस कवि का संबंध- इतनी गहराई से कि संबंधों की परिभाषा से इतर होता है एक नवीन संबंध का सृजन। चिन्तन और अभिव्यक्ति में एक-सी छटपटाहट, एक-सा आक्रोश, एक-सा संवेदन। मुक्तिबोध को स्मरण करते हुए अमृता भारती के आलेख मुक्तिबोध् : सत्-चित्-वेदना-स्मृति से एक महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ-
“मुक्तिबोध की हर कविता एक आईना है- गोल, तिरछा, चौकोर, लम्बा आईना। उसमें चेहरा या चेहरे देखे जा सकते हैं । कुछ लोग इन आईनों में अपनी सूरत देखने से घबरायेंगे और कुछ अपनी निरीह-प्यारी गऊ-सूरत को देखकर आत्मदर्शन के सुख क अनुभव करेंगे। मुक्तिबोध ने आरोप, आक्षेप के लिये या भय का सृजन करने के लिये कविता नहीं लिखी- फिर भी समय की विद्रूपता ने चित्रों का आकार ग्रहण किया है- आईनों का। ’अंधेरे में’ कविता इस संग्रह का सबसे बड़ा और भयजन्य आईना है।…
….लौटते हुए खिड़की पर कुहरा नहीं होता था- न डिब्बे में एकान्त- बस पटरियाँ बजती रहतीं थीं और यात्रियों की आवाजें- इन सबके बीच मुक्तिबोध की कविता चलती रहती थी- कहीं कोई नहीं टोकता था- कहीं कोई नहीं रोकता था- बस, कविता चलती रहती थी- अविराम ….।”
सुन्दर बात!
सत्य वचन!
मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर आपकी प्रविष्टि का इन्तजार था …आभार ..!!
इतना कम लिखे!
का महराज? दुबारा लिखिए। हम अगोरे बैठे थे, आप तो निराश कर दिए।
ये ठीक नहीं है (अटल मार्का)
__________________________
मुक्तिबोध जटिलताओं के कवि हैं। शायद इसीलिए उनकी कविताएँ दिन ब दिन जटिल होती जा रही दुनिया में आज भी प्रासंगिक हैं, या उन्हें लगती हैं जिन्हें बातों को दिल पर लेकर जीने की बिमारी है। बुद्धत्त्व को प्राप्त ज्ञानी जन तो सदा सुखी हैं। उन्हें उनकी कविताएँ फालतू लग सकती हैं।
एक बात और। 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' संग्रह की कविताओं में मराठी लोक, शब्द और वाक्य विन्यास के प्रयोग नए सौन्दर्य को रचते हैं। मराठी या (कोई भारतीय भाषा) बनाम हिन्दी का टंटा बेहूदा है,हानिकर है – उनकी कविताओं को पढ़ते समय यह महसूस होता है।
मुक्तिबोध ने कविता रची और वे अमर हो गए। ब्लागर कवियों को उन से सीखने की जरूरत है।
मुझे उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध के साथ लम्बे समय तक़ काम करने का मौका मिला।उनसे मै हमेशा लड़ता-झगड़ता रहा लेकिन उन्होने मुझे हमेशा छोटे भाई जैसा प्यार दिया।अभी हाल ही मे प्रेस क्लब मे मुक्तिबोध पर एक कार्यक्रम भी हुआ जिसमे अशोक बाजपेई भी शामिल हुये थे।यंहा इप्टा मुक्तिबोध जंयती पर नाट्य स्मारोह भी कर रही है।सुभाष मिश्र लगे हुयें यंहा सांस्कृतिक और कला जगत को सक्रिय बनाये रखने में।
तय करो तुम किस ओर हो,जीवन के इस मूलमंत्र को सब समझते है लेकिन तय करते-करते शायद समय या कह लिजिये उम्र निकल जाती है।मै तो आज तक़ तय ही नही कर पाया हूं कि मै किस ओर हूं।
मुक्तिबोध अमर रहे,मुक्तिबोध सदियों मे एक ही होता है।
bahut achchi baat kahi aapne…
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने, आभार एवं शुभकामनायें ।
इसमें किसी को क्या शक हो सकता है।
सही बात है मगर आपका आलेख कुछ छोटा है धन्यवाद्
Sahi kaha…..Is sundar post ke liye sadhuwaad !!!
BHUT ACHCHHA.
बड़े संक्षेप में कह गए आप अपनी बात. मुझे तो इंतज़ार है आपकी श्रृंखला पर. निराला, मुक्तिबोध, प्रसाद जैसे कवियों पर आधारित श्रृंखला.
बहुत सुंदर लिखा आप ने आप के दुसरे ब्लांग मुरली तेर….. पर टिपण्णी देने मे बहुत दिक्कत आती है, मै कई बार वहां ५ मिंट खराब कर के वापिस लोटा हुं, मेरी तरह अन्य लोग भी जरुर वापिस जाते होगे, कृप्या वहां अपना टिपण्णी बक्स बदल ले.
धन्यवाद
@राव जी ..
मुक्तिबोध पर लिख दिए यही बहुत है !
Very nice article. I like your writing style. I am also a blogger. I always admire you. You are my idol. I have a post of my blog can you check this : Chennai super kings team