टिप्पणीकारी केन्द्रित अपने पूर्ववर्ती आलेखों में मैं यह समझने का प्रयास करता रहा कि टिप्पणीकारी का अपना एक निजी सौन्दर्यशास्त्र निर्मित हो, जिससे वह चिट्ठाकारी के विभिन्न उद्देश्यों को समुचित ढंग से पूर्ण करने में सहायक सिद्ध हो और अभिव्यक्ति की पूर्णता को अपने छोटेपन में ही अभिव्यक्त करने में सक्षम हो । टिप्पणी जो तत्क्षण एक प्रकाश-बिन्दु थमा जाती है किसी प्रविष्टि के सन्दर्भ में उसका अपना एक निजी मूल्य है, क्योंकि मेरी दृष्टि में अक्सर किसी भी रचना के लिये व्यक्त की गयी तात्कालिक प्रतिक्रिया कुछ ऐसी झलक दे जाती है, जो उसी रचना की बाद में लिखी तर्कसम्मत समीक्षा भी नहीं कर पाती ।

किसी भी प्रविष्टि पर एक भी अर्थमय टिप्पणी प्रविष्टिकार के मन में नूतन आह्लाद की सृष्टि करती है, फिर वह उचक-उचक कर अपनी प्रविष्टि के सामान्य अर्थ के इतर जो अर्थ उस टिप्पणी ने प्रतिष्ठित कर दिया है, उसे निरखने का प्रयत्न करता है । और कई बार तो वह उस टिप्पणी के treatment (आचरण) से हतप्रभ हो कर अपना सिर हिलाता यह प्रतीति करता है कि उसकी प्रविष्टि का प्रभाव कम से कम इतना है कि पाठक ने उसे न लिखने की सलाह तो नहीं दी । क्या सौन्दर्य की प्रतिष्ठा इतने से ही सिद्ध नहीं हो जाती है कि कोई आवेश में आकर सामने खिलते फूल को तोड़ नहीं लेता ?

मेरी पिछली प्रविष्टि पर टिप्पणी करते हुए अनिल जी ने लिखा था कि “लेख की गुणवत्ता का टिप्पणियों से कोई लेना देना नहीं है ” और यह भी कि उन्होंने ’जो बकवास पोस्ट लिखी थी, उस पर कभीकभी सबसे अधिक टिप्पणियाँ जाती हैं
ऐसा क्यों होता है ? क्या इसका मतलब यह निकाल लिया जाय कि बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करने वालों को वह पोस्ट बकवास नहीं लगी थी ? या यह मान लें कि उन टिप्पणीकर्ताओं को बकवास और बे-बकवास प्रविष्टि का अन्तर नहीं मालूम ? या इससे हटकर यह मान लें कि बकवास प्रविष्टियाँ (?) अच्छी प्रविष्टियों (?) की तुलना में हमारी इन्द्रियों की सद्यःसंवेदना को ज्यादा उत्प्रेरित करती हैं, और हम टिप्पणी को तत्पर हो जाते हैं ।

यदि साहित्य की इस धारणा को स्वीकृत करें कि किसी भी रचनात्मक कार्य में दो तत्व स्पष्टतया दीखते हैं – रचना की मनोभूमि और रचनाकार का व्यक्तित्व; और ब्लॉग-जगत की इस धारणा – कि बड़ा ब्लॉगर मतलब ज्यादा टिप्पणियाँ – का परीक्षण करें तो यह बात कुछ साफ होने लगती है कि टिप्पणियाँ हिन्दी ब्लॉगिंग में रचनाकार के व्यक्तित्व पर मिलती हैं बजाय रचना की मनोभूमि या उसकी विशेषता के ।

टिप्पणीकारी का कोई निश्चित फार्मूला तय हो जाय, इसकी संभावना क्षीण लगती है । किसी भी प्रविष्टि (निश्चित ही मैं किसी उल्लेखनीय अच्छी प्रविष्टि का सन्दर्भ ले रहा हूँ, किसी बकवास प्रविष्टि (?) का नहीं क्योंकि इन्हें तो ऐसी वैसी अनेकों टिप्पणियाँ स्वतः ही मिल जाया करती हैं) पर की गयी टिप्पणी महत्वपूर्ण तभी होगी जब टिप्पणीकार उस प्रविष्टि के भीतर से ही प्रविष्टिकार के ‘विजन’ (अन्तर्दृष्टि) को समझ लेगा । और इसीलिये टिप्पणीकारी का कोई निश्चित फार्मूला उपयोगी नहीं, क्योंकि प्रविष्टियाँ सार्वभौमिक सत्य के स्थान पर व्यक्ति-सत्य को प्रतिष्ठित करती जान पड़ती है इस ब्लॉग-जगत में ।

कैसे प्रविष्टिकार के विजन को समझेंगे कि टिप्पणी करेंगे ? प्रश्न बड़ा है । मैं डा० अरविन्द मिश्र’ के आलेख की ओर आपका ध्यान खींचूँगा । वह बहुधा गत्यात्मक ज्योतिष के दावों की व्याख्या करते मालूम पड़ते हैं । अब देखिये कि अरविन्द जी ज्योतिष-पत्रा को ऊल-जलूल बता कर उस पर प्रश्नवाची चिह्न खड़ा करते हैं, तो संगीता जी की भविष्यवाणियों पर अपने वैज्ञानिक सत्य की कसीदाकारी करते हैं | मूलतः वह इन्हें एक नया अर्थ प्रदान करने की कोशिश है जब अरविन्द जी यह कहते हैं कि :

“आजकल के फलित ज्योतिषी आसमान में न देखकर पत्रा में देखकर ही शुक्र उदय की घोषणा करते है और यह कैसी विडम्बना है कि वह आसमान में कहीं ज्यादा स्पष्ट और सुंदर दीखते है !”

तो वस्तुतः वह कह भले ही रहे होते हैं कि ’इस फलित ज्योतिष का अर्थ यही है कि इसका कोई अर्थ नहीं’, परन्तु वह इस अनर्थ में ही सारगर्भित अर्थ व्यक्त कर रहे होते हैं । अरविन्द जी की आदत गा़लिब की ज़बान में “आशिक हूँ पै माशूक फरेबी है मेरा काम की तरह है, और कई दफा जब वह किसी चीज को स्वीकार करते हुए भी अस्वीकार कर रहे होते हैं अथवा इसके ठीक उलट किसी अस्वीकृत को स्वीकृत करने का मन बना चुके होते हैं तो एक बार फिर बकौल ’ग़ालिब’ यह अंदाज रखते हैं कि :

रज्जनियाज* से तो न आया वह राह पर
दामन को उसके आज हरीफाना* खेंचिये ।”

तो टिप्पणीकार का दायित्व ही है कि वह अर्थ की सार्थकता को पकड़ ले, उसकी उपयोगिता को नहीं ।

रज्जनियाज़ : नम्रता और श्रद्धा
हरीफाना : सहोद्योगी की तरह