मेरे जिले की एकमात्र संसदीय लोकसभा सीट चन्दौली के लिये नामांकन कार्यालय में एक प्रत्याशी, नाम तो बड़ा सुशोभन है भागवत किन्तु करनी बड़ी भोथरी है, गधे पर बैठकर और जूते की माला पहनकर नामांकन करने गया। लोकतंत्र का इतना विभत्स मजाक पहली बार देखने को मिला है। ’भागवत’ की बुद्धि भरसाँय (भाँड़) में चली गयी है। (खबर पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें)

ये महानुभाव गधे पर क्यों बैठे? गधा तो शीतला मइया का वाहन है, अतः भागवत जी तो महामारी लेकर आ गये। भोली जनता को गधा बनाने वाला ऐसा गधा (माफ करें) कहाँ मिलेगा? यदि निरीह प्राणी की ही बात है तो गधा तो ’रजक’ (धोबी) वर्ग का सम्मानित जीव है। खुर भी चलाता है, दाँत भी चलाता है, भार भी ढोता है। सेवक है, सुशील है, सत्कर्मी है।

गधे को गधा ही रहने दीजिये, उसे गरुड़ न बनाइए

अच्छा होता ’भागवत जी’ मेमने पर बैठ गए होते! अंग्रेजी कवि ’विलियम ब्लेक’ ने मेमने (लैम्ब ) को सबसे निरीह माना है- न पूँछ, न सींग। कोई भेंड़ भी चुन सकते थे, समयानुसार भोजन कर लेते, जैसे नेता जनता का कर लिया करते हैं। जूते की माला की जगह कुर्सी लटका लेते- कुर्सी भी तो चलती है संसद में; चला भी लेते, उस पर बैठ भी जाते। ऐसी अभद्रता किस लोकतंत्र की धरोहर है? जनता तुम्हारा जूता देख रही है जिसे गले से निकालकर किसी के गाल पर चला सकते हो। ऐसी सुबुद्धि को शत-शत बार प्रणाम।

जिसका शील, जिसका आचरण, जिसकी वाणी और जिसके कर्म उपहार के नहीं उपहास के पात्र बन जांय, उसे संसद में भेंजने का कौन प्रयास करेगा! इसलिये अभीं प्रारम्भ में ही ऐसे विदूषकों को निकालकर बाहर कर दिया जाय तो यह देश के लिए अच्छी तारीख होगी। गधे को गधा ही रहने दीजिये, उसे गरुड़ मत बनाइये। मैं तो यही कहूंगा कि ऐसे संसदीय सीट का सपना देखने वाले ’श्री भागवत चौरसिया जी’ एक बार फिर अपने श्रृंगार-कक्ष में चले जाँय और आइने में अपना मुंह देख लें। देश तिजारत नहीं है, देश भारत है। इस भा-प्रकाश को भास्वर रहने दें, धूल-धूसरित न करें।