अज्ञेय की पंक्ति- “मैं अकेलापन चुनता नहीं हूँ, केवल स्वीकार करता हूँ”- मेरे निविड़तम एकान्त को एक अर्थ देती हैं। मेरा अकेलापन अकेलेपन के एकरस अर्थ से ऊपर उठकर एक नया अर्थ-प्रभाव व्यंजित करने लगता है। मेरा यह एकान्त संवेदना का गहनतम स्वाद चखते हुए, अनेकानेक अनुभूत-अनानुभूत सत्यों को खँगालते हुए मुझे सम्पूर्ण मानव जाति के अन्तःकरण से जोड़ता है। फिर एकान्त में ठहरा हुआ यह मन-मस्तिष्क सम्पूर्ण समाज से अपने को व्यवहृत होते देखता है। स्मृति के अनगिन वातायन खुलते हैं। अपनी दैनंदिन जीवन-सक्रियता में बटोरी हुई सूर्य-मणियाँ स्मृति की गहरी अंधकार भरी गुफा में डाल दिया करता था, यह एकान्त शायद उन्हीं सूर्य-मणियों का पुनरान्वेषण है।
इस पुनरान्वेषण में ’अज्ञेय’ पुनः याद आते हैं-
“क्या अकेला होकर ही मैं अधिक समाज-संपृक्त न हुआ होता ?”
मतलब, अकेला होना सबके साथ होना है!
सच ही तो है, साहित्य का भी एक अर्थ यही तो व्यंजित करता है- सहितौ- सबके साथ होना ।
अज्ञेय की ये पंक्तियाँ भी द्विअर्थी है। अकेला होना साथ होना भी हो सकता है और अकेला होना भी।
अद्वैत के अर्थ में अकेला होना तो सब के साथ होना ही होता है। लेकिन अद्वैत को छोड़ दीजिए। तब ऐसा नहीं होगा।
मतलब, अकेला होना, सबके साथ होना है ? ठीक कहा है आपने। अकेला होकर भी हम अकेला हो कहाँ पाते हैं। आशिकों की भाषा में किसी ने कहा है कि-
खुशबू तेरे बदन की मेरे साथ साथ है।
कह दो जरा हवा से तन्हा नहीं हूँ मैं।।
सादर
श्यामल सुमन
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दिनेश जी की बात सही लगती है ऐसे में.
देखिये यह बात बिल्कुल सीधी है और सबसे ज्यादा टेढी भी है. द्वैत को समझना भी ऐसा ही है और अगर हम इस बात को समझना चाहे तो देखें कि द्वैत का उल्टा अद्वैत ही क्यों कहा गया? वर्ना बात सीधी सी थी.
द्वैत का उल्टा अद्वैत कहने के पीछॆ उद्देष्य यही है कि अद्वैत किसी अंक को परिभाषित नही करता जबकि एक कहने से संख्या बोध होता है.
और ये अद्वैत या परमात्मा (अगर हम मानना चाहे तो) इतना छोटा नही है कि एक मे समा जाये. बस अमझ का सवाल है.
रामराम.
भूल सुधार :
*अमझ = समझ
न जाने क्यूँ ग़ालिब का “डुबोया मुझको होने ने…..” याद आया
हिमांशु जी आप के पिछले प्रश्न के उत्तर के लिये कृपया k-h-a-r-a-b-l-o-gपर मेरी ताज़ा पोस्ट देखें
“मैं अकेलापन चुनता नहीं हूँ, केवल स्वीकार करता हूँ”। इन पंक्तियों में एक शान्ति है —चुप सी !! आपने जो लिखा है उसमे कही ऐसा कुछ नही है (बहुत बार होता है ) |
बस एक चलती हुयी प्रकिया- सी चीज का शोर है — दौड़ती हुयी ट्रेन की आवाज सा —खड़ बड़ खड़ बड़ !!
@ Aarjav, पहले तो ऐसा है नहीं, और अगर हो भी तो ट्रेन की खड़ बड़ खड़ बड़ की एकसी ध्वनि में महसूस करो कि तुम अकेले नहीं हो गये ! तुम्हें नहीं लगता कि ध्वनि का वह सातत्य एकान्त को और विस्तार देता है, एकान्त को उस ध्वनि का अभ्यस्त बना देता है । फिर ट्रेन की उस ध्वनि को ध्वनि कहने की संभावना भी शायद खो जाती है ।
वस्तुतः तुम ठीक ही कहते हो, मैं भी इस यांत्रिक समाज की गतिशीलता के भीतर से ही तो अपना एकान्त चुनता हूँ । मेरे पास भी ट्रेन की ध्वनि की ही तरह एकान्त को चीरता बहुत कुछ आता है, पर बाद में उसी एकान्त का हिस्सा बन जाता है ।
और इसीलिये मैं कह रहा हूँ, अकेला होना सबके साथ होना है ।
यही तो आनंदित करने वाली हिन्दी है -हाय ! कितने प्रवंचित हैं रे वे लोग जो इसका आनंद नहीं उठा पाते ! हे ईश्वर तूं उनकी मदद क्यों नहीं करता !
अब कुछ इस प्रस्तुति के भाव -दार्शनिक पक्ष पर भी ! मनुष्य तो मूलतः एकाकी ही है -एक निमित्त मात्र बस प्रकृति के कुछ चित्र विचित्र प्रयोजनों को पूरा करने को धरती पर ला पटका हुआ -उसकी शाश्वत अभिलाषाओं की मत पूँछिये -वह कभी खुद अपने को ही जानने को व्यग्र हो उठता है तो कभी कहीं जुड़ जाने की अद्मय लालसा के वशीभूत हो उठता है -दरअसल उसकी यह सारी अकुलाहट खुद अपने को और अपने प्रारब्ध को समझने बूझने की ही प्राणेर व्यथा है -जिसे कभी वह अकेले तो कभी दुकेले और कभी समूची समष्टि की युति से समझ लेना चाहता है -पर अभी तक तो अपने मकसद में सफल नहीं हो पाया है -और यह जद्दोजहद तब तक चलेगी जब तक खुद उसका अस्तित्व है -और एक दिन (क़यामत !) या तो उसे सारे उत्तर मिल जायेंगें ( प्रकृति इतनी उदार कहाँ ?) या फिर वह चिर अज्ञानी ही धरा से विदा ले लेगा ! इसलिए हे हिमांशु इन पचडों में न पड़ कर तूं जीवन को निरर्थक ही कुछ तो सार्थक कर मित्र -कुछ तो साध ले भाई -अकेले रह कर या सबसे जुड़ कर यह सब तो बस मन का बहलाना ही है ! महज रास्ता है मंजिल नहीं !
इसलिए ही तो कहा गया है -सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगति गति ! !
मैं मूढ़मति अरविंदजी की टिप्पणी पर बलिहारी जाऊं…बस, यही समझ पाया।
अज्ञेय तो हमेशा अज्ञेय ही रहे हमारे लिए…
बढ़िया मंडली जमती है आपके ब्लाग पर। जमाए रहें 🙂