विश्व पर्यावरण दिवस पर अचानक ही एक श्लोक याद आ गया। श्लोक वृक्षों की जीवंत उपस्थिति और उनके शाश्वत मूल्य और महत्व का विशिष्ट निरूपित करता है। मैं विचार करने लगता हूँ कि अपनी निरंतर बढ़ती हुई आकांक्षाओं के वशीभूत होकर कितना कुछ विनष्ट करना शुरू कर दिया हमने। अपने ही पोशाक ग्रह का पर्यावरण हम नष्ट करने लगे। इस श्लोक में वृक्ष की महिमा का अद्भुत बखान है-

सदा स तीर्थो भवति सदा दानं प्रयच्छति
सदा यज्ञं स यजते यो रोपयति पादपम्।
By Planting a single tree one gets as much ‘punya’ in life as residing eternally in a famous Tirth; always giving ‘danas’ and always performing Vedic sacrifices.

भविष्य पुराण

आर्थिक विकास और व्यवसाय का चोला पहनाकर हमने भौतिक सुख सुविधायें जुटाईं और अपनी समाप्त न होने वाली आकांक्षा के आग्रह से औद्योगिक समाज निर्मित कर अपनी मिट्टी और अपने पानी को जहरीले रसायनों से प्रदूषित कर डाला। अनियंत्रित आकांक्षा और तर्क-बुद्धि के उन्मत्त उपासक होकर हमने अपने हृदय का असली अंश खो दिया।

विश्व पर्यावरण दिवस – प्रकृति से राग किताबी रह गया

फिर तो प्रकृति से चिरन्तन संयुक्त हमारी रागात्मिका वृत्ति भी क्षीण-सी होने लगी। हम वृक्ष काटने लगे, पूरे के पूरे वन भी। हमने यह न देखा कि वृक्षों के कटान से सब गड्ड-मड्ड हो चला है- हमारे पर्यावरण का संतुलन, मौसम का आना-जाना, हरेपन का सोने जैसी रेत में बदल जाना। हमने यह भी न देखा कि हमारे साँसो की आवाजाही पर भी इन वृक्षों की नेमत है। किताबों में रख छोड़ा हमने ऑक्सीजन और कॉर्बन डाई ऑक्साइड का वृक्षों से जुड़ाव। कान-फोड़ू शोर भी कहीं इन्हीं वृक्षों की लताओं में उलझकर रह जाता है, हमारे कान के पर्दे सलामत रहते हैं- यह भी हम भूल गये। तापमान बढ़ता रहा। नयी शब्दावली ने हमारे ज्ञान का दायरा बढ़ा दिया- हम ग्रीन हाउस प्रभाव जानने लगे। पर वृक्ष कटते रहे।

सभ्यताएँ जंगलों का अनुसरण करती रही हैं व अपने पीछे रेगिस्तान छोड़ जाती हैं।

औद्योगिक विकास और यांत्रिकता को हमने जी भर कर अपनाया। हमें बस यही चाहिये था कि भारत की अर्थवत्ता का निर्माण हो जाय। सब कोई ऐश्वर्य की गोद में डूबे उतराये। आखिर विज्ञान ने मनुष्य का हित ही तो अपना काम्य रखा था- पर क्या यही अर्थ-संकुचित मानव स्वार्थ हित। पता नहीं। पर मुझे लगता है हमारे इस यंत्र जगत का इस्पात हमारी आत्मा में उतर गया है।

दो सौ वर्षों से विज्ञान की उन्नति होती रही, हमारी नैतिक उन्नति ठहरी ही रह गयी। विकास की प्रत्याशा ने मानव को जीवन का संघर्ष दिया और बढ़ती आकांक्षा और अहमन्यता ने यांत्रिकता। फिर च्युत क्या हुआ मानव-धर्म ही न! जीवन यदि प्रकृति की देन है तो उसके प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह और प्रकृति के धन का संरक्षण ही मानव धर्म हो सकता है।