समय की राह से
हटा-बढ़ा कई बार
विरम गयी राह ही,
मन भी दिग्भ्रांत-सा
अटक गया इधर-उधर ।
भ्रांति दूर करने को
दीप ही जलाया था
ज्ञान का, विवेक का,
देखा फिर
खो गयीं संकीर्णतायें
व्यष्टि औ’ समष्टि की ।
स्व-प्राणों के मोह छोड़
सूर्य ही सहेजा था
उद्भासित हो बैठी, और कौन ?
अन्तर की प्रज्ञा ही;
अंधकार दुबक गया
मेरे अवांछित का,
अंधापन सूरज की
आग में दहक गया ।
राह खुली कौन-सी ?
अतिशय आनन्द की,
हार गया तन भी
डूब गया मन भी ।
हिमांशु भाई…हम तो कब से बैठे हैं डूबने को..कमबख्त राह ही नहीं मिलती ..सुन्दर रचना
aapki kawitaa itani dhara prawaah hai ki purane kawiyon yaad aa gayee
सुन्दर रचना.
बेहद उतकृष्ट रचना. बहुत बधाई.
रामराम.
राह खुली कौन-सी ?
अतिशय आनन्द की,
हार गया तन भी
डूब गया मन भी ।
–बहुत उम्दा रचना!!
bahy he sundar bhaktiras me doobi hui kavita ke liye aabhar
कविता के रस में हम भी डूब गए.
एक बार फिर कमाल वाह शानदार कविता,जितनी ऊँची आपकी कल्पनाशक्ति है उतना ही विकसित आपकी शब्दकोश! कमाल
उजास ज्ञान का हो या प्रेम अंधेरा हार ही जाता है।
बहुत सुंदर !!
बहुत ही सुंदर कविता हिमांशु जी…पहली बार में तो समझ ही नहीं पाया…तीसरी बार में जाकर थाह पाया हूँ
अद्भुत !