बोध कथा
वाराणसी के शासक ब्रह्मदत्त को अपने दोषों के संबंध में जानने की इच्छा थी। उसने राजभवन के सेवकों से लेकर जनपद की प्रजा तक सब से प्रश्न किये; किन्तु किसी को उसमें कोई त्रुटि नहीं दिखी।
निराश ब्रह्मदत्त हिमालय पहुँचा। वन्य पर्वत के रमणीय एकान्त में एक साधु का आश्रम था। राजा वहाँ गया तो साधु ने उसका स्वागत कर उसे कंदमूल फल भेंट किये।
ब्रह्मदत्त ने फल चखे और मुग्ध होकर बोला, “आर्य, इन फलों में दिव्य स्वाद है। ये इतने मधुर क्यों हैं?”
साधु ने सहज स्वर में उत्तर दिया, “फल इसलिये मधुर हैं कि शासक धर्मनिष्ठ है।”
ब्रह्मदत्त को विश्वास न हुआ। “शासक अधर्मी हो तो क्या फल मीठे न होंगे?”
“नहीं वत्स। शासक अधर्म में प्रवृत्त होता है तो फल ही नहीं तैल, मधु और शर्करा भी अपना स्वाद त्याग देते हैं। उनका रस सूख जाता है।”
ब्रह्मदत्त राजधानी लौटा तो उसके मन में साधु का उत्तर घुमड़ रहा था। उसने इसका निर्णय करने की ठानी और प्रजा पर भयंकर अत्याचार किये। कुछ दिनों के बाद वह उसी साधु के आश्रम पर पहुँचा। साधु ने पूर्ववत उसे फल भेंट किये। किन्तु इस बार वे नीरस और कड़वे थे।
“आर्य ये फल तो निःस्वाद हैं”, ब्रह्मदत्त ने आश्चर्य से कहा।
साधु गंभीर हो उठा, ” तब तो अवश्य ही शासक पापिष्ठ हो गया, यह उसी के अधर्म का प्रभाव है।”
यह बोध कथा हमेशा से मन को छूती है। सोचता हूँ- क्या सच में फलों के स्वाद बदल गये थे या मन ही। और क्या स्वभाव इतनी शीघ्रता से बदल सकता है?
#’भारती’ के एक अंक से साभार |
सचमुच इस कथा ने मन को छू लिया…..कितनी बड़ी बात कही गयी है इस कथा में…..
katha me gaharaee to hai ………yah baat bhi sahi hai kisi ki atma sahi nahi ho to uasaka asar to haota hi hai …….our asar dur tak hota hai ….bahut hi sundar
अच्छी लगी बोधकथा,
आज का जुगाड हो गया ,
बच्चों को रोज एक सुनानी पडती है 🙂
सात्विकता,नैतिकता,धर्मपरायणता,चिन्तन,मनन और प्रयोग धर्मिता के भूली कहानी याद दिलाने के लिये धन्यवाद
बहुत सुंदर कथा. हमारे यहां कहा गया है कि "जैसा खाये अन्न वैसा होता है मन" शायद वैसा ही फ़ार्मुला यहां लगता होगा?
रामराम.
sundar katha, thanks
फल का स्वाद बदले या न बदले पर आदमी के चित्त की दशा बदलने में सहायक है ये बोध-कथा।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
हमारे भी मन को छू गई यह कथा. आभार.
" फल इसलिये मधुर हैं कि शासक धर्मनिष्ठ है।"
सही बात.
इस सुन्दर और सारपूर्ण कथा के लिए आभार, हिमांशु जी.
कथा के साथ आखिरी का प्रश्न पोस्ट को सार्थक कर गया है।
बहुत बढ़िया और प्रेरक कथा.
अच्छी बोधकथा…
यह तो मन का ही स्वाद है. सुन्दर कथा. आभार
कुकर्म के फल कैसे मीठे हो सकते हैं। प्रतीकात्मक कथा है।
स्वाद ना भी बदला हो …अपराध बोध ने ही स्वाद के बदलने का अहसास कराया हो …कौन जाने ..??
कवितायेँ…वृक्ष चर्चा …और अब बोध कथा …!!
बहुत खूब !!
atyant mahatvpoorna bodhkathaaa……………
abhinandan
Rochak evam prerak.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
क्या सचमुच ऐसा होता है हिमांशु -आज जो चौसा मैंने खाया वह तो बहुत मीठा था -पश्चिम यूं पी के किसी बाग़ से था !
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