आजकल एक किताब पढ़ रहा हूँ – आचार्य क्षेमेन्द्र की औचित्य-दृष्टि। किताब बहुत पुरानी है- आवरण के पृष्ठ भी नहीं हैं, इसलिये लेखक का नाम न बता सकूँगा। इस पुस्तक में लेखक की भाषा और शैली के चमत्कार से हतप्रभ हूँ- प्रस्तुति विलक्षण है। पूरा पढ़ सकने के बाद इसके आश्रय से कुछ ब्लॉग-प्रविष्टियाँ लिखने की तीव्र इच्छा हो रही है। फिलहाल पुस्तक के परिशिष्ट से एक टिप्पणी लिख रहा हूँ- एक शान्त मन ही व्रती होता है।


मन की शान्ति व्रत साधना से सिद्ध नहीं हुआ करती; एक शान्त मन ही, उलटे, स्वभावतः – गृहे-वाSरण्ये वा – व्रती होता है – इन दो बोध-कथा-सूत्रों से तुलनीय –

प्रथम बोध-कथा सूत्र

एक भले आदमी ने दुनिया के प्रलोभनों से मुक्ति पाने के लिये वानप्रस्थ ले लिया।

रात होती और एक कुहुमुखी आकर अपना राग छेड़ देती।

साधु जी ने युक्ति सोच ली। कोयल आत्मविस्मृति में, अगले दिन, अपना सर्वस्व उड़ेल रही थी- जंगल में मंगल ला रही थी, कि योगी जी ने फूस की कुटिया को, बाहर से, बन्द कर दिया और आग लगा दी!

लोगों ने आकर पूछा- “क्या हुआ? यह आग कौन पापी लगा गया?”

“मैंने लगायी थी; और किसने? कुटिया गयी तो क्या हुआ; कोयल का तो कक्ख न रहा। मैं खुश हूँ।”

द्वितीय बोध-कथा सूत्र

बहावलपुर में एक पीर रहा करते थे। मुसलमान थे। एक हिन्दू व्यापारी तीर्थ, व्यापार के लिये बाहर जाते हुए पीर साहब से आशीर्वाद लेने आया और अपना घर उन्हीं के सुपुर्द करता गया।

इस अर्से में पीर साहब खुद, दिन में एक बार, उसके घर जाते और जो काम शहर का होता, सती के लिये, कर आते; किसी चेले से उन्होंने कुछ नहीं करवाया।

महीनों बाद जब यह भक्त व्यापारी घर लौट रहा था, वह दूर से क्या देखता है- कि पीर साहब के कंधे पर एक पुराना चर्खा है और वो बन्द दर पर, बाहर, चुप इंतजार में खड़े हैं। उसका सिर श्रद्धा से झुक गया।

कुछ महीने और बीत गये। व्यापारी, एक नया मकान बनवाकर, गृह-प्रवेश के लिये फिर उसी विभूति के क़दमों में हाज़िर हुआ। पीर साहब अपने सारे ’कुल’ समेत पहुँचे। बतासे बाँटे गये। एक बतासा पीर साहब ने भी थाली से उठा लिया; उसी वक्त एक मुहम्मदी ने अदब से जताया- “पीर साहब, आज तो रमजान है; आप का रोजा है।”

“रोजा तोड़ा जा सकता है, एक प्यारे का दिल नहीं” और पीर साहब ने बतासा मुँह में डाल दिया ।

संदर्भ तो यही था :-

अत्र वल्कलजुषः पलाशिनः पुष्परेणु(भर)भस्म-भूषिताः।
(लोल) भृंगवलया-Sक्षमालिकास् तापसा इव विभान्ति पादपाः॥”

[ये वल्कल, यह भस-सी पुष्परज, ये मंडराते भ्रमर:

– स्वयं शान्त-पूत मन को अचेतन पलाशों में भी व्रतोचित तपस्विता तथा अन्तःशुचिता ही गोचर होती है।]


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