प्रेमचन्द हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय, सर्वकालिक महानतम उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। 31 जुलाई को पूरा साहित्य जगत उनका जन्मदिवस मनाता है। इस अवसर पर प्रस्तुत है मुंशी प्रेमचन्द की कहानी गमी ।
मुंशी प्रेमचन्द की कहानी गमी
मुझे जब कोई काम- जैसे बच्चों को खिलाना, ताश खेलना,, हारमोनियम बजाना, सड़क पर आने जाने वालों को देखना- नहीं होता तो अखबार उलट लिया करता हूँ। अखबार में पहले उन मुकद्दमों को देखता हूँ जिसमें किसी स्त्री की चर्चा होती है- जैसे आशनाई के, या भगा ले जाने के, या तलाक के, या बलात्कार के, विशेषकर बलात्कार के मुकदमें बहुत शौक से पढ़ता हूँ, तन्मय हो जाता हूँ।
कल संयोग से अखबार में ऐसा ही एक मुकदमा मिल गया, मैं संभल गया, ताबेदार से चिलम भरवा दी और घड़ी-दो-घड़ी असीम आनन्द की कल्पना कर के खबर पढ़ने लगा।
यकायक किसी ने पुकारा, “बाबूजी……?” मुझे यह ’मुदाखलक बेजा’ बुरी तो लगी, लेकिन कभी कभी इस तरह निमंत्रण भी आ जाया करते हैं, इसलिये मैंने कमरे के बाहर आ कर आदमी से पूछा, ” क्या काम है मुझसे? कहाँ से आया है?”
उस आदमी के हाँथ में न कोई निमंत्रण-पत्र था, न निमंत्रित सज्जनों की नामावली, इससे मेरा क्रोध दहक उठा, मैंने अंग्रेजी में दो चार गालियाँ दीं और उसके जवाब की अपेक्षा करने लगा।
आदमी ने कहा, ” बाबू भगीरथ प्रसाद के घर से आया हूँ, उनके घर में गमी हो गयी है।”
मैंने चिन्तित हो कर पूछा, ” कौन मर गया है?”
आदमी, “हुजूर! यह तो मुझे नहीं मालूम। बस इतना ही कहा है कि गमी की सूचना दे आ।”
यह कहकर वह चलता बना और मेरे मन में भ्रांति का एक तूफान छोड़ गया- कौन मर गया? स्त्री तो बीमार न थी, न कोई बच्चा ही बीमार था। फिर कौन गया? अच्छा समझ गया। स्त्री के बाल बच्चा होने वाला था, उसी में कुछ गोलमाल हो गया होगा। बेचारी मर गयी होगी। घर उजड़ गया। कई छोटे-छोटे बच्चे हैं, उन्हें कौन पालेगा? और तो और इस जाड़े पाले में नदी जाना और वह भी नंगे पैर और रात को नदी में स्नान, उसकी मृत्यु क्या हुई हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो हवा जुखाम हुआ करती है, रात को नहाना तो मौत के मुँह में जाना है।
इस सोच में कई मिनट मूढ़ बना खड़ा रहा। फिर घर में जाकर कपड़े उतारे, धोती ली और नंगे पाँव चला। भगीरथ प्रसाद के घर पहुँचा तो चिराग जल गये थे। द्वार पर कई आदमी मेरी तरह धोतियाँ लिये एक तख्त पर बैठे हुए थे। मैंने पूछा, “आप लोगों को तो मालूम होगा कि कौन मर गया है?” एक महाशय बोले, “जी नहीं, नाई ने तो इतना ही कहा था कि गमी हो गयी है। शायद स्त्री का देहान्त हो गया है। भगीरथ लाल को बुलाना चाहिये। देर क्यों कर रहे हैं। मालूम नहीं, कफन मँगवा लिया है या नहीं। अभी तो कहीं बाँस-फाँस का भी पता नहीं। …….”
मैंने द्वार पर जाकर पुकारा, “कहाँ हो भाई? क्या हम लोग अन्दर आ जाँय? चारपाई से उतार लिया है न?”
भगीरथ प्रसाद एक मिनट में पान और इलायची की तश्तरी लिये, फलालेन का कुर्ता पहने, पान खाते हुए बाहर निकले। बाहर बैठी हुई शोकमण्डली उन्हें देखकर चकित हो गयी। यह बात क्या है? न लाश, न कफन, न रोना, न पीटना… यह कैसी गमी है। आखिर मैंने डरते-डरते कहा, “कौन-यानि किसके विषय में… यही आदमी जो आपने भेंजा था…? तो क्या देर है?”
भगीरथ ने कुर्सी पर बैठकर कहा, “पहले आराम से बैठिये, पान खाइये, तब यह बात भी होगी। मैं आपका मतलब समझ गया । बात सोलहो आने ठीक है।”
“तो फिर जल्दी कीजिये, रात हो ही गयी है, कौन है?
भगीरथ ने अबकी गंभीर होकर कहा, “वही, जो सबसे प्यारा, मेरा मित्र, मेरे जीवन का आधार, मेरा सर्वस्व, बेटे से भी प्यारा, स्त्री से भी निकट मेरे ’आनन्द’ की मृत्यु हो गयी है। एक बालक का जन्म हुआ पर मैं इसे आनन्द का विषय नहीं, शोक की बात समझता हूँ। आप लोग जानते हैं, मेरे दो बालक मौजूद हैं। उन्हीं का पालन मैं अच्छी तरह नहीं कर सकता, दूध भी कभी नहीं पिला सकता, फिर इस तीसरे बालक के जन्म पर मैं आनन्द कैसे मनाऊँ। इसने मेरे सुख और शान्ति में बड़ी भारी बाधा डाल दी। मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि इसके लिये दाई रख सकूँ। माँ इसको खेलाये, उसका पाल्न करे या घर के दूसरे काम करे? फर्ज यह होगा कि मुझे सब काम छोड़कर इसकी सुश्रुषा करनी पड़ेगी। दस-पाँच मिनट जो मनोरंजन या सैर में जाते थे, अब इसकी सत्कार की भेंट होंगे। मैं इसे विपत्ति समझता हूँ, इसलिये इस जन्म को गमी कहता हूँ। आप लोगों को कष्ट हुआ, क्षमा कीजिये। आप लोग गंगा स्नान के लिये तैयार होकर आये, चलिये मैं भी चलता हूँ। अगर शव को कंधे पर रखकर चलना ही अभीष्ट हो तो मेरे ताश और चौसर को लेते चलिये। इसे चिता में जला देंगे। वहाँ मैं गंगाजल हाँथ में लेकर प्रतीज्ञा करुँगा कि अब ऐसी महान मूर्खता फिर न करुँगा।”
हमलोगों ने खूब कहकहे मारे, दावत खायी और घर चले आए। पर भगीरथ प्रसाद का कथन अभी तक मेरे कानों में गूँज रहा है।
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ह्म्म्म… प्रेमचंदजी के ज़माने में भी अख़बारों में यही कुछ पढ़ा जाता था …फिर तो जमाना बहुत नहीं बदला ..
रोचक कथा ..!!
सचमुच प्रेमचन्द्र जी कहानी के जादूगर इसीलिए तो माने जाते हैं कि वे किसी गम्भीर विषय को कहानी के माध्यम से इतनी सरलता से कह देते थे कि आदमी को बुरा भी न लगे और बात उसकी समझ में भी आ जाय। आज प्रेमचन्द्र जयन्ती के अवसर पर आपकी यह पोस्ट वाकई प्रशंसनीय है। बहुत बहुत आभार
हिमांशु पाण्डेय इलाहाबाद
अत्यंत उत्कृष्ट कथा!
वाह क्या बात है? किसी बात को कहने का यह तरीका आज भी आधुनिकतम है।
बहुत शानदार पोस्ट लिखी इस मौके पर आपने. शुभकामनाएं.
रामराम.
बढ़िया पोस्ट ,इसलिए कि ऐसा कथाकार फिलहाल आज तक देखने को नहीं मिला.
LEKHNI K SAHANSHAAH KO SALAAM !
प्रेमचंद को कितना भी पढ़ा जाय कम ही लगता है. !
इशारा भोंड़ी ब्लागिंग की ओर है ना ?
ऎऎ ऎ.. अब बोल भी दो, इशारा उसी तरफ़ है ना ?
मैं स्वयँ ही हाथ में गँगाजल लेकर प्रतीज्ञा करने की सोचता हूँ कि अब ब्लागिंग नहीं करूँगा !
पर, चर्मरोग हो जाने के भय से हाथों से गँगाजल का स्पर्श करने का साहस भी नहीं होता, बिसलेरी को पूछो, तो पुरोहित नाराज़ होते हैं !
इस कहानी का चुनाव, मुझ जैसे निट्ठल्ले ब्लागर को ध्यान में रख कर किया है ना ? ऎऎ ऎ.. अब बोल भी दो, हिमाँशु जी ।
जब से कमेन्ट मर्डरेशन लागू किया है, मैं टीप नहीं पाता, फिर भी इशारा ब्लागिंग की ओर है ना ?
इतनी सहजता से प्रेमचन्द जटिल बातों को भी कह देते हैं की ताज्जुब होता है -शुक्रिया इस कहानी को पढ़वाने के लिए !
प्रेमचंद जी की सभी कहानियाँ तो पहले ही पढ़ डालीं अब सोचते हैं धीरे धीरे पढ़नी चाहिये थीं !
फैमिली प्लानिंग वालों के बड़े काम की है यह कहानी। पर सरकारी लोग, कहां पढ़ते होंगे प्रेमचन्द्र को!
Is apthit kahani ko padhwane ka shukriya.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
bhut accha likah ha yarr good