यूँ तो अनगिनत पुष्प-वृक्षों को मैंने जाना पहचाना नहीं, परन्तु वृक्ष दोहद के सन्दर्भ में कुरबक का नाम सुनकर मन में इस पुष्प के प्रति सहज ही उत्कंठा हो गयी। मैंने इसे पहचानने का प्रयास किया। प्रथमतः जैसा कुछ ग्रंथों में उल्लिखित है, यह बहुत कुछ कांचनार या कोविदार जैसा एक पुष्प है, रूप और गुण के लिहाज से। परन्तु धन्वंतरि निघंटु के अनुसार सौरेयक के चार प्रकारों में से पीत सौरेयक को कुरण्टक और रक्त सौरेयक को कुरबक कहते हैं। हिन्दी में यही कटसरैया या पियाबासा कहा जाता है। पियाबासा के यह पुष्प सर्वत्र सुलभ हैं।
कुरबक का वर्णन साहित्य में एक रक्त-वर्णी पुष्प के रूप में किया गया है। अमरकोष के अनुसार भी कुरबक के फूल लात होते हैं। रामायण के वसंत वर्णन में रक्त कुरबकों का उल्लेख है। कालिदास भी इसे रक्त वर्णी ही उल्लिखित करते हैं। कुरबक को कटसरैया मान लेने में थोड़ी समस्या यह भी थी कि कटसरैया पूर्णतः लाल नहीं होती और अनेकों स्थानों पर तो इसके पीत और शुभ्र पुष्प ही प्राप्त होते हैं। परन्तु विभिन्न स्थानों पर इसके भिन्न-भिन्न प्रकार एवं इसकी स्वभावगत विशेषता के साम्य के कारण इसे कटसरैया मान लेना ही उपयोगी है।
कुरबक के अलग-अलग रंग रूप
वनौषधि निदर्शिका (हिन्दी समिति, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश) में भी इसका स्पष्ट उल्लेख है कि पुष्प के रंग भेद से कटसरैया चार प्रकार की होती है – श्वेत , पीत, रक्त और नील। इनमें रक्त सौरेयक (barleria cristata) को ही कुरबक कहते हैं। इसके पुष्प भड़कीले, गुलाबी रंग के होते हैं। यह पौधे स्थान-भेद से पत्तों और पुष्प-वर्णों में भिन्न-भिन्न होते जाते हैं। हिमालय-क्षेत्र और हमारे आसपास यह पौधे जामुनी नील रंग के होते हैं।
साहित्य में कवि-प्रसिद्धि है कि कुरबक सुन्दर स्त्रियों के आलिंगन से पुष्पित हो जाता है। इस विश्वास की जानकारी कालिदास को भी थी और राजशेखर को भी। राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में वसंत-वर्णन के क्रम में इसका संकेत किया है–
“नालिङ्गितः कुरबकस्तलको न दृष्टो ना ताडितश्च चरणैः सुदृशामशोकः|
सिक्ता न वक्त्रमधुना बकुलश्च चैत्रे चित्रं तथापि भवति प्रसवावकीर्णाः||”(आश्चर्य यह है कि इस मास में कुरबक का वृक्ष रमणी के आलिंगन के बिना, तिलक का वृक्ष उसकी चितवन के बिना, अशोक वृक्ष उसके पदाघात के बिना और बकुल वृक्ष मद्य-गंडूष के बिना ही पुष्प प्रसव करने लगते हैं।”)
स्त्रियों द्वारा आलिंगन करने की इस कवि-प्रसिद्धि के पीछे शायद इस पुष्प-वृक्ष का छोटी झाड़ी या पौधे की तरह होना है। इस पौधे के स्वयंजात क्षुप आसानी से गाँवों के आसपास बगीचों की मेड़ों पर या मन्दिरों के उद्यानों, परिसरों में लगे हुए मिल जाते हैं।
देवपूजा के उपयोग में आने वाला यह पुष्प समस्त भारतवर्ष के उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में पाया जाता है। इसकी शाखायें जड़ से निकलती हैं, पत्तियाँ अण्डाकार, अभिमु्खक्रम से स्थित; पुष्प अवृन्त बड़े, प्रायः एकाकी होते हैं। फल यवाकृतिक तथा द्विकोष्ठीय व जड़ काष्ठीय़ होती है। लघु-स्निग्ध गुण, तिक्त-मधुर रस, कटु विपाक व ऊष्ण वीर्य वाला यह पुष्प कफवातशामक, रक्तशोधक, ज्वरघ्नक, कुष्ठ्घ्न आदि है। श्वसन संस्थान के रोगों में इसका औषधि-प्रयोग अत्यन्त उपकारी है।
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इतनी अच्छी अच्छी जानकारिया कहा कहा से खोज कर लाते है ,,,,,,,इसके लिये शुक्रिया………….ढेरो मेहनत करने के लिये ………….ब्लोग जगत आभारी रहेगा आपका……….सुन्दर
ऐसा साहित्यिक विवरण ब्लॉग जगत में बहुत कम देखने को मिलता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
पहली बार जाना कुरबक के फूलों के बारे में -शुक्रिया
बहुत अनोखी जानकारी है हमारे लिये तो. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
हम्म…. आपके ब्लॉग से ही सुना और जाना. पहली बार. वैसे कवि तो बहुत कुछ देख जाते हैं. सब कहाँ मिल पाता है 🙂
कुरबक के पुष्प के बारे में अच्छी जानकारी दी है . इसके पहले कभी पढ़ा और सुना नहीं था. आभार.
आपका ब्लॉग संयोजन मनमोहक है हिमांशु जी।
बहुत सुँदर जानकारी दी
इस सुँदर पुष्प की
– लावण्या
बहुत दिलचस्प जानकारियाँ दी आपने..आभार!!
कहते है जहां ना रवि पहुचे वहां कवि पहुचे, आज यकीन हो गया.
बहुत सुंदर लेख ओर जानकारी दी आप ने धन्यवाद
कुरबक के बारे में अनूठी जानकारियां मिलीं। भाई, क्या पारुल पुष्प के बारे में कुछ जानकारियां ला सकते हैं ? बांग्ला संस्कृति में इस पुष्प का विशेष स्थान है।
कुरबक वृक्ष की जानकारी नयी है हमारे लिए ..
इतना श्रम मानव और वनस्पतियों के भुला दिए गए सख्य को उद्घाटित करने के लिए !
नतमस्तक हूँ। फॉलो करते हैं।
yaar . amazing information . aap kahan se le aate hai itni sudnar aur behatreen jaankari .. bhai .. kuch pal ke liye to hum waadiyon me pahunch gaye …
meri dil se badhai sweekar karen..
aapka
vijay
हृदय कमल भी तो एक पुष्प ही है ..खिल उठा है !
बड़े काम के माली हो हिमांशु जी !जुग जुग जियो ! वैसे हमारे यहाँ वैद्य को कविराज यूं ही नहीं कह गए पुराने लोग.. कवि से भी सूक्ष्म दृष्टि से देखा होगा उन्होंने इस वनस्पति जगत को और प्यार किया होगा जनू-ए-इश्क सा, चुन-चुन कर नाम धरे होंगे! वाह!