(१)
दिनों दिन सहेजता रहा बहुत कुछ
जो अपना था, अपना नहीं भी था,
मुट्ठी बाँधे आश्वस्त होता रहा
कि इस में सारा आसमान है;
बाद में देखा,
जिन्हें सहेजता रहा क्षण-क्षण
उसका कुछ भी शेष नहीं,
हाँ, जाने अनजाने बहुत कुछ
लुटा दिया था मुक्त हस्त-वह सारा
द्विगुणित होकर मेरी सम्पदा बन गया है ।
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(२)
मैं ऐसा क्यों हूँ ?
कि मैं हर बार अपना अस्तित्व
लगा देता हूँ दाँव पर,
कूद जाता हूँ समन्दर में
केवल यह जानने के लिये, कि
कोई तो है जो मुझे बचाने आयेगा,
और यह सच पता चल सकेगा
कि वह तो सिद्धहस्त है
किसी को भी बचा सकने में ।
अच्छा जीवन दर्शन-अनुकरणीय।
जीवन का दर्शन लिए कविता बिल्कुल खास।
अपने सपने बन गए सच्चा है एहसास।
एक पंक्ति याद आ गयी…..
जो खूब सहेजा था वो पास नहीं लेकिन
जो खूब लुटाया है अब भी है खजाने में।
और क्या कहूं।
लुटा दिया था मुक्त हस्त-वह सारा
द्विगुणित होकर मेरी सम्पदा बन गया है…
बिलकुल आजमाया हुआ सफल नुस्खा है.
इतनी सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई ..!!
बहुत उम्दा!
बढ़िया ! 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' याद आ गया।
कल निर्मल आनन्द वाले तिवारी जी कूदने की बात किए और आज आप भी कूदने की बात कर रहे हैं। आज कल 'कुदौनी' मौसम चल रहा है क्या?
बहुत शानदार. शुभकामनाएं.
रामराम.
संदेश देती, सुंदर विचारों से भरी
आपकी कविता के एक एक भाव अनुकरणीय है..
बधाई..
दिनों दिन सहेजता रहा बहुत कुछ …
बहुत बढ़िया ,
वाह वाह। कविता है या जीवन दर्शन?
बहुत सुन्दर!
Gambheer lekin saarthak kavita.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
behatarin
ram ram
उत्तम अति उत्तम
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'चर्चा' पर पढ़िए: पाणिनि – व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार
अनुकरणीय जीवन दर्शन
सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई
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गिरिजेश जी ने मेरे मन की बात कह दी -यह कूदा कुदौअल क्या हो रहा है हिमांशु ?
वाह क्या बात है! अत्यन्त सुंदर, दिलचस्प और शानदार रचना! बहुत बढ़िया लगा!
Itna gahra kaise soch lete hain aap?
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मैं ऐसा क्यों हूँ ?
कि मैं हर बार अपना अस्तित्व
लगा देता हूँ दाँव पर,
कूद जाता हूँ समन्दर में
केवल यह जानने के लिये, कि
कोई तो है जो मुझे बचाने आयेगा,
आपने मन के भावों को बखूबी पिरोया है ……ऐसा क्यों हूँ ..इसका जवाब भी आप ही के पास है …!!