कई बार निर्निमेष
अविरत देखता हूँ उसे
यह निरखना
उसकी अन्तःसमता को पहचानना है
मैं महसूस करता हूँ
नदी बेहिचक बिन विचारे
अपना सर्वस्व उड़ेलती है
फिर भी वह अहमन्य नहीं होता
सिर नहीं फिरता उसका;
उसकी अन्तःअग्नि, बड़वानल दिन रात
उसे सुखाती रहती है
फिर भी वह कातर नहीं होता
दीनता उसे छू भी नहीं जाती।
कई बार निर्निमेष अविरत देखता हूँ उसे
वह मिट्टी का है, पर सागर है –
धीर भी गंभीर भी।
एक और कविता: तुम कौन हो?
प्रक्रति और पुरुष का सम्बन्ध ही ऐसा है क्या कीजे !
नदी से इतनी शिकायत ..
सागर की धीरता , गंभीरता पर बलिहारी ..
बहुत सुन्दर रचना..!!
तस्वीर किसकी है ..??
सुंदर कविता!
बहुत सुंदर रचना !!
बहुत ही खुब्सूरत रचना…………बहुत खुब
बहुत सुंदर रचना.
रामराम.
सिर्फ सुंदर कह कर छोड़ दूँ???
तस्वीर में आप ही हैं ना…कविता से मूड मेल खा रहा है।
@ वाणी जी, गौतम जी – तस्वीर तो अपनी ही है । कविता से तस्वीर का संबंध तो आप ही निरखें-परखें । आभार ।
प्रकृति में मानवीकरण हमेशा प्रभावित करता है…नदी स्वेच्छा से बेहिचक होकर सागर में विलीन हो जाती है…यही उसकी प्रकृति है…सागर धीर गम्भीर रहे यही उसके व्यक्तित्त्व की विशेषता है….
फिर भी वह अहमन्य नहीं होता
सिर नहीं फिरता उसका;
.ye line vishesh taur par prabhavit karit hai himanshu ji.
aur yakeen maniye kewal is line ko padhne ka baad spasht ho jaata hai ye kavita 'sagar' ko jaa rahi hai…
…chayavadi shabdon ka utkrisht prayog…
एक बार ऐसे ही मेरे एक मित्र से बात हो रही थी..
– नदी की पूर्णता इसी में है की वह सागर से मिल जाये
– हाँ सबकुछ दे ही तो देती है वह अपना
-पर उसका अंतिम पडाव तो सागर ही होता है
-हाँ ..पर इसके बाद उसका जल आचमन योग्य नही रह जाता
..आप सोंच लें कौन कितना खोता है ..और किसे क्या मिलता है
..इन सब बातों से परे ….सुन्दर रचना 🙂