बचपन!
तुम औत्सुक्य की अविराम यात्रा हो,
पहचानते हो, ढूढ़ते हो रंग-बिरंगापन
क्योंकि सब कुछ नया लगता है तुम्हें।
यौवन!
तुम प्रयोग की शरण-स्थली हो,
आजमाते हो, ढूँढ़ते हो नयापन
क्योंकि सबमें नया स्वाद मिलता है तुम्हें।
वृद्ध-पन!
तुम चाह से पगे परिपक्व आश्रय हो,
तुम भी उत्कंठित होते हो, ललचाते हो
उन्हीं रंगबिरंगी चीजों में अनुभव आजमाते हो।
हिमाँशू जी बहुत सुन्दर और सही है इस जीवन की त्रिवेणी की अभिव्यक्ति शुभकामनायें
तीन कदम में सारा जीवन नाप दिया आपने !
कम शब्दों में जीवन को सम्पूर्णता से रखने के प्रयास अच्छा लगा हिमांशु जी।
जिन्दगी कहते हैं बचपन से बुढ़ापे का सफर
लुत्फ तो हर दौर का है पर जवानी और है
बेहतरीन अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत खूब..तीन पद्द्यों मे पूरा जीवन रच दिया आपने..
..हाँ वृद्धावस्था का एक दूसरा पहलू भी होता है..संतृप्ति का..लिप्सा से परे..सांसारिक सुखों की निस्सारता का अनुभव..और संसार से परे के सत्य को जान लेने की आकांक्षा..आश्रम व्यवस्था मे यही सन्यासाश्रम का अभीप्स भी होता था..
शुक्रिया..एक दार्शनिक रचना के लिये
बहुत सुन्दर — सही चित्रण
जीवन का सार यही है.
वृद्धपन से पार तो और तिलस्मी दुनियां है। कौन लोक, कौन देह, कौन जन्म!
बहुत सुंदर ओर सटीक चित्रण किया आप ने अपनी कविता मै
एक पूरी उम्र को महज तीन सोपानों में समेटना एक कवि के वश में ही है …जीवन ज्ञान से भरपूर इस कविता के लिए बहुत आभार..!!
neeraj ki naseni yaad aayi…vahan chauthe aangan ka bhi zikr thaa…sundar rachna
भई वाह ! आपने तो कमाल कर दिया ।
बड़े माहिर निकले
सब कुछ समेत कर रख दिया । आभार ।
वृद्ध-पन !
तुम चाह से पगे परिपक्व आश्रय हो,
तुम भी उत्कंठित होते हो, ललचाते हो
उन्हीं रंगबिरंगी चीजों में अनुभव आजमाते हो ।
वाह, अभी से दूर द्रष्टा !
BAAKHOOBI UTAARA HAI JEEVAN KE HAR PAHLOO KO ….
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