तुम आते थे
मेरे हृदय की तलहटी में
मेरे संवेदना के रहस्य-लोक में
मैं निरखता था-
मेरे हृदय की श्यामल भूमि पर
वन्यपुष्प की तरह खिले थे तुम ।
तुम आते थे
अपने पूरे प्रेमपूर्ण नयन लिये
निश्छल दूब का अंकुर खिलाये
मुग्धा, रसपूर्णा, अनिंद्य ;
मेरी चितवन ठहरा देते थे
अपने उन किसलय-कपोलों पर ,
फिर तुम्हारी श्वांस-रंध्र में समाकर
अनन्त यात्रा पूरी हो जाती थी ।
तुम आते थे
साँझ-सकारे के बादल के किनारे
चमके सितारे की तरह,
मेरी बरौनियों में उमड़ पड़ता था
आश्चर्य-मोद-लोक;
सोचता हूँ
कितना छोटा होता है प्रत्येक निमिष
कितनी छोटी होती है तुम्हारी चितवन
कितना छोटा होता है तुम्हारा आलिंगन
फिर यह भी सोचता हूँ
कि कितना छोटा होता है यह क्षण,
पर यह विस्तरित न हो
इस जगती में, इस विपुल व्योम में
तब कैसे
काँपेंगे अन्तराकुल मन,
कैसे विहरेंगी साँसे
कैसे ठहरेगा प्रेम
जन्म-मृत्यु को लाँघ !
कितना छोटा पर कितना विस्तृत पल ..
निश्छल दूब का अंकुर खिलाये..आश्चर्य-मोद-लोक
अद्भुत शब्दों से गुंथी अनुपम माला …कहाँ से चुनकर लाते है ये मोती..
कैसे नहीं ठहरेगा प्रेम
जन्म-मृत्यु को लाँघ !
नवरात्री की बहुत शुभकामनायें ..!!
तुम आते थे
साँझ-सकारे के बादल के किनारे
चमके सितारे की तरह,
मेरी बरौनियों में उमड़ पड़ता था
आश्चर्य-मोद-लोक |
प्रेम की पूर्णता का समस्त वांगमय
निचोड़ के रख दिया आपने
सच है
मनोभाव ….!
इस तरह से आ पाते हैं क्या
प्रेम के मुक्ताकाश में
प्रिय घुमण – घुमण के आ ही जाय
बरौनियां ही नहीं
हृदयालोक में ऐसा ही
अनुभव गुंजायमान होने लगता है ।
सुंदर कविता। स्वयं को टटोलती!
"सोचता हूँ
कितना छोटा होता है प्रत्येक निमिष
कितनी छोटी होती है तुम्हारी चितवन
कितना छोटा होता है तुम्हारा आलिंगन"
bahut hi adbhoot Thought….
Pehle 3 stanzas ka saar…
…aur phir us kshana ko vistarit karke jeevan bana dena…
..kavita main ek adbhoot ehsaas paida karta hai….
..turant baad ek prashn !!
it can't be better than this…
…navratri ke awasar par adyatmik perm bahut bhaya….
सच्चे क्षणवादी को शाश्वतता की भला चाह कहाँ ?
पल में मिले मोक्ष तो आवागमन की बात कहाँ ?
हिमांशु जी अच्छी रचना . बहुत सुन्दर
behad sundar rachna………..bhavpoorna
कितना छोटा होता है प्रत्येक निमिष
कितनी छोटी होती है तुम्हारी चितवन
कितना छोटा होता है तुम्हारा आलिंगन
फिर यह भी सोचता हूँ
कि कितना छोटा होता है यह क्षण,
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यह तो निश्चय ही अद्भुत है। अनुभूति होना एक पक्ष है और इतने सुन्दर शब्दों में उकेरना दूसरा सशक्त पक्ष!
सोचता हूँ
कितना छोटा होता है प्रत्येक निमिष
कितनी छोटी होती है तुम्हारी चितवन
कितना छोटा होता है तुम्हारा आलिंगन
बेहतरीन = हर आकान्क्षित पल वाकई कितना छोटा होता है.
इस अनुपम काव्य के लिए आपका अभिनन्दन !
पर यह विस्तरित न हो
इस जगती में, इस विपुल व्योम में
तब कैसे
काँपेंगे अन्तराकुल मन,
कैसे विहरेंगी साँसे
कैसे ठहरेगा प्रेम
जन्म-मृत्यु को लाँघ !
बहुत ही सुंदर…
बहुत ही सुंदर रचना.
धन्यवाद
आज कल गंगा के आस पास रहने वाले मृत्यु वग़ैरह की बातें बहुत कर रहे हैं!
@कैसे ठहरेगा प्रेम जन्म-मृत्यु को लाँघ …
हम समझ सकते हैं। कभी हमने भी . .
आपका शब्द-भंडार, आपके वाक्य-विन्यास और भाव-पक्ष…उफ़्फ़्फ़!
सोचता हूँ कि काश इनका छटांश भी जो मेरे पास होता…!!!
सुन्दर गहनतम भाव एवं जादू सा शब्द संयोजन।