जागो मेरे संकल्प मुझमें
कि भोग की कँटीली झाड़ियों में उलझे,
भरपेट खाकर भी प्रतिपल भूख से तड़पते
स्वर्ण-पिंजर युक्त इस जीवन को
मुक्त करूँ कारा-बंधों से,
दग्ध करूँ प्रेम की अग्नि-शिखा में ।
मेरा मनोरथ सम्हालो मेरे प्रिय !
कलमुँहीं रजनी के प्रभात हो तुम !
मन्दोत्साहित चेतना के मन्द हास हो तुम !
तुम दिक्काल से परे प्रेम-ज्ञान के ज्ञान-फल हो !
तुम सीमा रहित अतल-तल हो !
कलमुँहीं रजनी के प्रभात हो तुम !
मन्दोत्साहित चेतना के मन्द हास हो तुम ।
वाह रे संकल्प !
ऐसे संकल्प पर तो वारी जायगी वह !
हिम्म्ते मर्दा तो मददे खुदा ।
आभार ।
आपका संकल्प मजबूत है .
कोई तो कहे एवमस्तु !
वाह संकल्प का आह्वान
उत्तम संकल्प
ye bhog ….
kaash kabhi isse mujhe bhi mukti mil jaati….
aisa laga ki poem kahin gehre se aaiye hai…
"जागो मेरे संकल्प मुझमें
कि भोग की कँटीली झाड़ियों में उलझे,
भरपेट खाकर भी प्रतिपल भूख से तड़पते
स्वर्ण-पिंजर युक्त इस जीवन को
मुक्त करूँ कारा-बंधों से,
दग्ध करूँ प्रेम की अग्नि-शिखा में ।
"
is adhyatm ki jyoti ke liye main bhi bhatak raha hoon himanshu ji…
darta hoon kahin main 'kasturi mrig' na ho jaaon !!
बहुत सुन्दर संकल्प हैं बहुत बहुत बधाई
उन्नयन के इस आह्वाहन हमें भी अपना आहवाहन जोड़ने दे ……….
संकल्प और रजनी के बीच प्रभात क्या कर रहा है?
भाई, माला गूँथना कोई आप से सीखे !
सीमा का क्या? उसकी यहाँ नहीं चलती।
जागो मेरे संकल्प मुझमें… प्रभावी ……
"संकल्प जगे आत्मन तुममें
तुम प्रबल रश्मि हो घनवन में
तुमने ही दिखाई राह उन्हें
जो लुप्त हो गए थे मन में
उन्मत्त लहर का राग हो तुम
जो सींच रहा है मरुतन को
अब बींध दिया है तुमने ही
इस भग्न ह्रदय को पुष्पण से
खंडित करके अवसाद मेरा
शीतलता तुमने पहुंचाई
मैं ढूंढ रहा था जिस जल को
उस अमृत के हिम अंश हो तुम"
हिमांशु जी, पंद्रह साल पहले षोडशवर्षी निशांत ने यौवानावेग में बहुत कुछ लिखा और फिर उसे असमय तिलांजलि दे दी. आपकी मधुर पंक्तियां मुझमें पुनः जीवनावेग का संचार कर रही हैं. इसी हेतु आपको समर्पित हैं मेरी ये 'कविता', आपको समर्पित और आपके लिए लिखी गई. ग्रहण करें.
मेरा मनोरथ सम्हालो मेरे प्रिय !
कलमुँहीं रजनी के प्रभात हो तुम !
मन्दोत्साहित चेतना के मन्द हास हो तुम !
तुम दिक्काल से परे प्रेम-ज्ञान के ज्ञान-फल हो !
तुम सीमा रहित अतल-तल हो !
ऐसा मधुर निवेदन और संकल्प …शुभ हो ..!!
"जागो मेरे संकल्प मुझमें
कि भोग की कँटीली झाड़ियों में उलझे,
भरपेट खाकर भी प्रतिपल भूख से तड़पते
स्वर्ण-पिंजर युक्त इस जीवन को
मुक्त करूँ कारा-बंधों से,
दग्ध करूँ प्रेम की अग्नि-शिखा में ।"
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गजब! क्या मैं उभरते रवीन्द्रनाथ को पढ़ रहा हूं?!
@ निशांत मिश्र, यह जीवन, यह रचना-कर्म, यह कवि-भाव सब धन्य हुआ । निशांत भाई, जीवन के बहुविध रंगों में डूबा-उतराया-किसी ने ऐसे उपकृत न किया । मुझ अकिंचन ने जीवन की धन्यता ही तो माँगी थी अपने ईश्वर से इस कविता-कर्म, साहित्य-संजीवनी के द्रव्य-आचमन से । मिल भी वही गया न इधर ! आप, गिरिजेश जी,आदरणीय ज्ञान जी, दर्पण भाई का ऐसा अहेतुक उत्साह कैसे सम्हाल सकूँगा !
स्नेहाधीन !
जागो मेरे संकल्प मुझमें
आपका संकल्प बहुत ही सुन्दर और महान है