एक पन्ना मिला । पन्ने पर फरवरी २००७ लिखा है, इसलिये लगभग तीन साल पहले की एक अधूरी कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । अधूरी इसलिये कि उस क्षण-विशेष की संवेदना और भाव-स्थिति से अपने को जोड़ नहीं पा रहा और इसलिये भी कि एक प्रविष्टि का काम हो जायेगा ….
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दौड़ो !
आओ !
बटोर लो !
मेरे अन्तर में
गहुआ कर फूल उठा है पारिजात-वन,
दृष्टि मेरी,
मेरी जिह्वा
और गमन मेरा
झोरता है पुष्प-तरु को
बिखर जाता है सुन्दर हरसिंगार चहुँओर !
पारिजाती हो गया है अस्तित्व मेरा
सहला रही है सृष्टि को यह गंध ।
आहा…मनोहर…और कुछ भी जो सोच रहा हूँ..मुझे सोचने दो..मेरा पारिजात…!
खिल उठा विंहसता वसंत ….हरसिंगार सा पारिजात वन …
बहुत सुन्दर …
ठीक ही कहा कि इस संवेदना विशेष से खुद को जोड़ नहीं पा रहा …
जुड़ेगा कैसे …मन वचन तो बुद्ध के चरणों में है …:)…..
हरसिंगार पुष्प की तस्वीर मनोहर है …!!
बहुत ही सुन्दर भाव लिये ।
बहुत भावपूर्ण रचना।
वाह! मन उदास था, प्रसन्न हो चला!
भावपूर्ण सुंदर रचना के लिये ध्न्यवाद
बहुत सुन्दर!!
हरसिंगार सी सुन्दर रचना
Waah ! Waah ! Waah ! Atisundar bhaav aur adbhut abhivyakti….
Man aanandit ho gaya is sundar rachna ko padh…aabhar.
कभी फिर से प्रफुल्लित हो उन क्षणों से जुड़ कर पूरा किजियेगा..इस हेतु शुभकामनाएँ.
गहुआ कर फूल उठा है..
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झोरता है..
–इन आचंलिक शब्दों से पारिजात-वन मेरे मन में भी महक गया।
-बधाई.
फूलों की बगिया सी कविता.
देवेन्द्र जी की बात मेरी भी बात।
हरसिंगार को पारिजात भी कहते हैं।
भीतर, अंतर में पारिजात है और बाहर हरसिंगार। सब कुछ के बाद भी अंतर का श्रृंगार बाहरी संसाधनों से नहीं होता। … मास्साब, बस बुद्ध के प्रकाश में समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
सुन्दर भाव, कब पूरी कर रहे है ? वैसे अधूरी भी पूरे भाव दे रही है।
Adhuri lagti to nahiN…
दौड़ो !
आओ !
बटोर लो !
मेरे अन्तर में
गहुआ कर फूल उठा है पारिजात-वन..
.. mujhe to itni bhi puri lag rahi hai..
Adhuri, fir bhi sarthak.
सृष्टि को सहलाती ये गंध तो दूर इधर लैपटाप के स्क्रीन से इतर हमें भी सहला गयी है।
तन-मन में पारिजात वन !
मैं नासमझ बड़ी देर तक सोचता रहा
''पुष्प-तरु'' या ''तरु-पुष्प''!
क्या पता उलटवासी हो , हो ना कबीर के इलाके से !
…………. आभार ,,,
पढ़ा …!!
मन कभी हरसिंगार से लदी डाली बन डोल गया और कभी पारिजात की सुगंध में सराबोर…
पूर्णता का बोध करा गयी आपकी अधूरी सी कविता…!!!
पारिजात मन तो ठीक है लेकिन प्रातःकाल की वेला मे झरते हुए फ़ूलो को देख कर वेदना होती है और पुष्प कम से कम डाली पर दिखते तो है लेकिन बेचारा पारिजात की ऐसी किस्मत कि उसी समय उसे धूल लुन्ठित होन पड्ता है
भाव पूर्ण कविता लेकिन इस पारिजात को समेटने मे उसका अन्त ही दिखता है मै तो उसे निहारना ही पसन्द करून्गा