बीती रात
मैंने चाँद से बातें की ।
बतियाते मन उससे एकाकार हुआ ।
रात्रि के सिरहाने खड़ा चाँद
तनिक निर्विकार हुआ ,
बोला –
“काल का पहिया न जाने कितना घूमा
न जाने कितनी राहें मैं स्वयं घूमा
और इस यात्रा में
– जीवन से मृत्यु की अविराम-
सब कुछ हुआ ज्ञात
नहीं शेष कोई धाम
पर आज मिल गया है
अपिरिचित-सा एक स्वर
सिहर रहे हैं कर्ण-कुहर ।”
“देखता हूँ सृष्टि का विस्तार,
चतुर्दिक
मूर्छना के भाव में सिमटी हुई धरती-
तरु-तृण-पात के स्नेह से
नीर-निधि-उछ्वास तक ,
अनगिनत आयाम हैं इस मूर्छना के ।”
“मैंने सुन लिया है स्वर अपरिचित
मृत्यु के भी पार का ।
मैं अकंपित, अ-श्लथ यात्रा अविराम लेकर
सहज ही निर्मित करुँगा मार्ग ।
मुक्त होगा मार्ग वह,
नींव होगी चेतना की ।
जायेगा वह मार्ग
प्राची के ठौर ।”
बहुत ही सुंदर भाव। हिमांशु जी, यकीन मानिए आपकी यह पहली कविता है जो मुझे इतनी पसंद आई। बधाई।
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सलीम खान का हृदय परिवर्तन हो चुका है।
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
बहुत बढ़िया रचना
yon lagta hai maano ye kavita aapne likhi nahin balki kavita ne svyam ko aapkse likvaa liya hai…….
badhaai ho himaanshuji
aisi ghatnaayen bahut kam ghatti hain
धरती और चाँद के बीच की विराट बिम्ब-सर्जना
में पूरी कविता ने आकार लिया है ..
आशावाद की सुन्दर अभिव्यक्ति ..
आश्वस्ति का भाव .. काबिलेतारीफ … …
जायेगा वह मार्ग
प्राची के ठौर ।
–vah!
बहुत सुंदर रचना….
"देखता हूँ सृष्टि का विस्तार,
चतुर्दिक
मूर्छना के भाव में सिमटी हुई धरती-
तरु-तृण-पात के स्नेह से
नीर-निधि-उछ्वास तक ,
अनगिनत आयाम हैं इस मूर्छना के ।"
हिमांशु जी,
बहुत ही खूबसूरती के साथ आपने भावों को शब्दों में बांधा है—अच्छी लगी आपकी कविता।
हेमन्त कुमार
हिमांशु
परिपक्व रचना है .
हिमांशु जी ,
आपकी कविताओं का ठौर पाना कहाँ है हमारे वश में..!!
हम तो बस इन्हें पढ़ते ही ..किसी अकिंचन की तरह जुट जाते हैं शब्दों की तलाश में …और यही सोचते हैं कि …लो कर लो बात…अब हम क्या कहें भला ???
गिरिजेश जी की मेल से प्राप्त टिप्पणी –
"चाँदनी रात पर लिखी अपनी एक कविता याद आ गई। साथ ही उसका सीमित बोध भी! 🙂
प्रकृति को वर्णित करना या उसके बोध को वर्णित करना बहुत आसान है लेकिन उसे 'जीवित' बतियाता अनुभव करने के बाद संवाद सँवारना उतना ही कठिन… अनुभूति के ऐसे ही क्षणों में प्रार्थना फूट पड़ती है – ईश्वरविहीन। ऐसे ही क्षणों में शायद हर व्यक्ति कवि हो जाता है। और दार्शनिक भी! "
मैंने सुन लिया है स्वर अपरिचित
मृत्यु के भी पार का ।
मैं अकंपित, अ-श्लथ यात्रा अविराम लेकर
सहज ही निर्मित करुँगा मार्ग ।
बहुत ही दार्शनिकनुमा ख़याल है ….
बुद्ध की राह पर चल पड़े हैं ….??
शब्द संचयन, भाव, प्रवाह-हर दृष्टिकोण से अद्भुत रचना के लिए बधाई स्वीकारें मित्र.
भई वाह ! आजकल चांद से बातें हो रही हैं..
इतने गहरे तरीके से..
साधु – साधु ।
आभार ।
मैंने सुन लिया है स्वर अपरिचित
मृत्यु के भी पार का
शब्दों में जैसे जीवन उतार आया हो ……… सजीव रचना है हिमांशु जी ……..
शब्द-संयोजन और लय-प्रवाह हमेशा की तरज बेजोड़ हैं हिमांशु जी। किंतु भाव-पक्ष तक पहुँचने में तनिक मुश्किल हो रही है। फिर से आता हूँ।
आज फिर आया हूँ हमेशा की तरह पर आज हाजिरी भी लगवा रहा हूँ. आज कविता पढ़ पाने का समय नहीं है.
🙂
सदैव आप की हिंदी की शुद्धता हमें आपकी और आकर्षित करती है.
अरबी, उर्दू और फ़ारसी के शब्दों से रहित संस्कृतनिष्ठ हिंदी, आजकल के दम-घोंटू शब्दों से भागकर आपकी शरण में आना हमेशा ही सुखद लगा है.
बहुत सुंदर रचना. चांद पर कितनी ही कविता लिखी गयी हैं. ये एक और कोण दिया आपने.
फिर से आया था इस कविता को पढ़ने…समझने।
सोचा आपको बताता चलूँ।
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
कुछ यूँ ही तो वन-प्रांतर मे विचरते हुए, घने-काले रातों मे बुदबुदाया होगा सिद्धार्थ ने आप ही आप..चाँद को देखकर..!
मै मुक्त नही हो पा रहा आपके 'करुणावतार बुद्ध' से ..ना होना ही चाहता हूँ..!
सुंदरतम..!
अति सुन्दर!