
पिछली प्रविष्टियों राजा हरिश्चन्द्र- एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात और आठ से आगे…..
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Painting of Raja Ravi Verma : In cremation ground where his wife comes with their dead son. Source:Wikipedia |
रानी: (हाथ जोड़े ऊपर देखती है) मेरे प्राणनाथ! तुम कहाँ हो? काश आ जाते और एक बार जिसे अपनी गोद में खिलाया है उस लाडले का मुँह देख लेते। “प्यारे जू है जग की यह रीति विदा के समय सब कंठ लगावें।” अब क्या मेरे लिए उचित है कि अपने समय को बरबाद करूँ। मेरी श्वासों के झूले, अब मत झूलो आगे पीछे। तुम आ जाते प्राणेश, सिर्फ आज के लिए, सिर्फ आज के लिए। (कुछ थमकर) आ रहे हैं प्रियतम, अब समीप प्रतिध्वनित हो रही है उनकी पदचाप। उनका संगीत मेरी अन्तरात्मा में गूँज रहा है। लो विश्वामित्र! राजा हरिश्चन्द्र गए, पुत्र रोहिताश्व गया। अब रानी शैव्या गंगा की गोद में लोटेगी। आपका कलेजा अब तो ठंडा हो जाना चाहिए। हरिश्चन्द्र का नाम लेकर निखिल मानवता मृत्युंजय हो जाएगी। अरे ओ मेरे अश्रु! अगाध हृदय समुद्र के अनमोल द्युतिमय मोती, रुको, रुको। तुम्हारा मूल्य आँकने वाला रस पारखी वाम विधाता ने बनाया ही नहीं। मुझे प्रियतम को ढूँढ़ लेने दो। तब फिर बहना, खूब बहना। (रोहित को देखकर) आ मेरे लाल, एक बार फिर तुम्हें भर अंक भेंट लूँ। काष्ट चिता में दूध पिलाने वाले हाथों से आग की लपट बिखेर दूँ। तू भी जल मैं भी जलूँ। अयोध्या की प्रजा, क्षमा करना! सत्य के देवता, क्षमा करना! प्रियतम के सिन्दूर से सजी माँग में पुत्र की जली राख पोतकर अखण्ड पुत्रवती बने रहने का वरदान श्मसान देव से माँग लूँगी। फिर तुम्हें दहकता देख तेरी जलन को अपने कलेजे में धारण कर, गंगा में कूद जाऊँगी (चिता में आग लगाने जा रही है।)
राजा: खबरदार! खबरदार! बिना कफन दिए आग नहीं लगाना (वहाँ पहुँच जाते हैं) शव का वस्त्र उतारकर आधा दे दो देवि! तब क्रिया करो। यह मेरे राजा का हुक्म है। (हाथ फैलाते हैं)
(बिजली चमकती जा रही है।)
राजा: देवि! सत्य की विजय होती है। इसमें ही सत् चित् आनन्द की त्रिवेणी लहराती है। सनातन जीवन का यही धुव केन्द्र है। तुम्हें भी सत्यमेव जयत के ध्वज को आकाश तक लहराना ही है। छोड़ दो यह विलाप-कलाप। समय की गति निराली है। हम गुलाम हैं। कहीं रहें गुलाम का धर्म निबाहना है। यह समय बड़ा खिलवाड़ी है। आगे और पीछे सब में जो चिरन्तन सत्य है, हमें, तुम्हें उस मर्यादा से डिगना नहीं है। तुम अपना धर्म पालो, हम अपना धर्म।

(तब तक पृथ्वी काँपने लगती है, गंगा की धारा रुक जाती है। धन्य-धन्य की ध्वनि के साथ नेपथ्य में बाजे बजने लगते हैं। त्रिदेव, धर्म, सत्य आदि प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र की जयकार करने लगते हैं।)
धर्म: बस्! बस्! बहुत हो गया, बहुत हो गया। अब त्रैलोक्य को सँभालो अन्यथा महाप्रलय हो जाएगी। मैं ही चाण्डाल बनकर श्मसान में तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।
सत्य: राजा हरिश्चन्द्र की जय हो! मैं ही ब्राह्मण वेशधारी उपाध्याय बना था, जहाँ शैव्या और रोहिताश्व को शरण मिली थी।
विश्वामित्र: आओ राजन! (गले लगा लेते हैं) ऐसी सत्य-निष्ठा न हुई और न होगी। तुम्हारी परीक्षा भी ले रहा था, तुम्हें सँभाले भी था। सोना अग्नि तप्त होकर ही तो दीप्त होता है। विजयी भवः।
मैंने ही तक्षक को डँसने के लिए भेजा। (जल लेकर रोहित के ऊपर छिड़कते हैं) रोहित, उठ जाओ बेटा!
शिव: काशी नगरी हरिश्चन्द्र के आगमन से गरिमामय हुई। तुम धन्य हो! (पुष्पवर्षा होती है।)
नारायण: हे धर्म, सत्य, सदाचरण के प्रतिमूर्ति! तुम्हारी कीर्ति यावत् चन्द्रदिवाकर अक्षय रहेगी। रथ तैयार है। अयोध्या का राज सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। चलो!(विश्वामित्र हाथ पकड़कर सबको रथ में बैठाते हैं, पुष्प वर्षा होती है, सूत्र-वाक्य गूँजता है)
॥समाप्त॥

सत्यमेव जयते।
सत्यमेव जयते, अन्ततः सत्य की ही जीत होती है..
जय हो..
दर्द जब हद से बढ जाये, दवा होता है – लेकिन सत्यनिष्ठा हारती नहीं कभी! यह कथा पढना-सुनना-देखना मेरे लिये सदा ही एक कठिन परीक्षा जैसा होता है लेकिन अंत दिलासा दिलाता है।
आभार!
हाँ, अंत ही थामता है, और निश्चयी भी बनाता है हमें।
गदगद हूँ सूत्रधार!!